प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमी का हृदयखूने जिगर से लिखी हुई ‘जिगर’ की सरस सूक्ति तो देखिये- यों मिले इश्क में मिटकर मुझे हासिल मेरा, हृदय का कैसा दिव्य रूपान्तर हो जाता है होगा उस दिन। दिल को इस तरह गँवा देने का यह गहरा भेद खुल जाने पर किस दिलवालों के दिल में बेदिल हो जाने की एक मीठी हूक न उठती होगी! निर्मल तो बस प्रेमी का ही हृदय होता है। उसे हम एक स्वच्छ दर्पण कह सकते हैं- हिरदै भीतर आरसी, मुख देखा नाहिं जाय। दुविधा दूर हो जाय तो हम न केवल अपनी ही सूरत, बल्कि अपने मित्र का भी चित्र उस दर्पण में देख सकते हैं। कैसा सच्चा है वह दिल का आईना- दिल के आईने में है तसबीरे यार, अपना सच्चा रूप और उस सिरजनहार साईं की सूरत हृदय दर्पण में हम प्रेम की मदिरा पीकर जरूर देख सकते हैं। धन्य है प्रेमी का हृदय मुकुर, जिसमें उस प्यारे मित्र की झाईं सदा झिलमिलाया करती है। वह तसबीर दिल के आईने में उतर कैसे आती है। कहाँ से आकर वह अपनी अलबेली तसबीर दिल पर खिंचा जाता होगा! भीतर के कपाट तो सदा बंद ही रहते हैं। दिल खुलता ही कब है? खुलता नहीं दिल बन्द ही रहता है हमेशा, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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