प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 171

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेमाश्रु

डगर- डगर में, गली गली में, घर घर के द्वार पर गोपिकाओं के आँसुओं से भरी हुई कभी न सूखने वाली एक अपार नदी बन गयी है।

मीर साहब ने भी रो रोकर अपने यार की गलियों में कई बार दरिया की धारें बहायी थीं।

उन्हीं गलियों में जब रोते थे हम ‘मीर’
कई दरिया की धारें हो गई हैं।

पर नेक दिल नजीर को अपनी प्यारी बस्ती का अब भी बहुत कुछ खयाल है। वह गरीबों के घरों की खैर मनाते हैं। उन्हें डुबोना नहीं चाहते, इसीलिए आप यार की गली में रोहने नहीं जाते। अगर कहीं वहाँ जाकर हजरत ने रो दिया, तो हर एक घर के आस पास पानी ही पानी हो जायेगा। कहते हैं-

रोऊँगा आके तेरी गली में अगर मैं, यार!
पानी ही पानी होगा हरेक घर के आसपास।

मेहरबान! खुदा के वास्ते ऐसा भूलकर भी न कीजिएगा। अब कविवर तोष का अत्युक्ति पाण्डित्य देखिये। इनका साधारण नदी नाले से काम न चलेगा। तोष को इन सबसे संतोष नहीं। यह तो आँसुओं का एक महासागर बनाकर ही दम लेंगे। सारे ब्रह्माण्ड को ही जलमय कर देंगे। बलिहारी!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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