प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमाश्रुडगर- डगर में, गली गली में, घर घर के द्वार पर गोपिकाओं के आँसुओं से भरी हुई कभी न सूखने वाली एक अपार नदी बन गयी है। मीर साहब ने भी रो रोकर अपने यार की गलियों में कई बार दरिया की धारें बहायी थीं। उन्हीं गलियों में जब रोते थे हम ‘मीर’ पर नेक दिल नजीर को अपनी प्यारी बस्ती का अब भी बहुत कुछ खयाल है। वह गरीबों के घरों की खैर मनाते हैं। उन्हें डुबोना नहीं चाहते, इसीलिए आप यार की गली में रोहने नहीं जाते। अगर कहीं वहाँ जाकर हजरत ने रो दिया, तो हर एक घर के आस पास पानी ही पानी हो जायेगा। कहते हैं- रोऊँगा आके तेरी गली में अगर मैं, यार! मेहरबान! खुदा के वास्ते ऐसा भूलकर भी न कीजिएगा। अब कविवर तोष का अत्युक्ति पाण्डित्य देखिये। इनका साधारण नदी नाले से काम न चलेगा। तोष को इन सबसे संतोष नहीं। यह तो आँसुओं का एक महासागर बनाकर ही दम लेंगे। सारे ब्रह्माण्ड को ही जलमय कर देंगे। बलिहारी! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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