प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमाश्रुपर काजहिं देहकों धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ। इतना उपकार यदि दयालु मेघों ने कर दिया, तो समझ लो, इनका जीवन सफल हो गया। उस आँगन पर उन्हें प्रियचरण तो किसी तरह छूने को मिल जायँगे। अतएव प्रेमी फिर एक बार मेघों से हाथ जोड़कर विनय करता है कि- पर खेद का विषय है कि कुछ कवि कोविदों ने इन गरीब आँसुओं का एक तरह से मजाक उड़ाया है। इन करुणाकणों को अतिशयोक्ति अलंकार से अलंकृत करने में सरस्वती के उन दुलारे सपूतों ने कमाल किया है। क्या कहा जाय उनकी विचित्र प्रतिभा को! देखिये, महाकवि बिहारी ने नीचे के दोहे में कैसी कमनीय काव्य कलाल दिखायी है- गोपिन के अँसुवनि भरी, सदा असोस अपार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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