प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमाश्रुअजी, खोल देने दो भेद। यहाँ डर ही किस बात का है। जब रोना ही है, तब खुब दिल खोलकर रो लें। इन्हीं आँसुओं की बदौलत तो आँखों में यह प्रकाश बना हुआ है। मुबारक हो प्रेमियों के चुलबुले आँसुओं का बचपन। परमात्मा न करे कि कभी ये प्यारे मनचले आँसू सूख जायँ। इनके सूखते ही आँखों के दिये बुझ जायँगे, अंधेरा छा जायेगा। हमारे मीर साहब कहते हैं- सूखते ही आँसुओं के नूर आँखों का गया, दिन रात इसी तरह बहते रहें। जब तक प्यारे न आवें, कम से कम तब तक तो इनका बहना बंद न हो। न जाने कबसे यह लालसा है कि वह दिन कब आयेगा, जब ये प्रेम में पागल आँसू प्रियतम के चरणों को पखारेंगे- यों रस भीजे रहै ‘घन आऩंद’ रीझैं सुजान! सुरूप तिहारैं। जिस दिन ये उन प्यारे पैरों को पखारेंगे, उसी दिन इन्हें हम बड़भागी कहेंगे। क्योंकि उस दिन अपने पटके अंचल से प्रियतम इन्हें पोंछ देंगे। धन्य! पर शायद ही इस जीवन में ये कभी बड़भागी हो पायँ। उनके यहाँ पधारने की कोई आशा नहीं। तब इन अभागे आँसुओं की पहुँच उन चरणों तक कैसे हो सकेगी? एक उपाय है। यदि परोपकारी मेघ किसी तरह इन आँसुओं को लेकरप्यारे के आँगन पर टुक बरसा दें, तो इनकी साध अवश्य पूरी हो जाय। चाहें तो वे कर सकते हैं, क्योंकि दूसरों के ही लिये उन्होंने शरीर धारण किया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज