प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहऔर नहीं तो, पूज्य पवन देव, कृपाकर मेरा इतना काम तो कर ही दो! जहाँ कहीं भी मेरे प्यारे हों, उनके पैरों की थोड़ी सी धूल मुझे ला दो। उसे मैं इन जलती हुई आँखों में आँजूगी। हाँ, विरह व्यथा में वह प्यारी धूल ही सञ्जीवनी का काम देगी- बिरह बिथा की मूरि, आँखिन में राखौं पूरि, वियोग श्रृंगार के मुख्य कवि जायसी ने भौंरे और कौए के द्वारा एक विरहिणी का संदेसा उसके प्रियतम के पास बड़ी ही विदग्धता से भेजवाया है। प्रिय वियोगिनी केवल इतना ही कहलाना चाहती है- पिउ सों कहेहु संदेसड़ा, हे भौंरा, हे काग। इस ‘संदेसे’ में सर्वव्यापिनी सहानुभूति की कैसी सुंदर व्यंजना हुई है! हाय री प्रिय स्मृति! तब क्या था और अब क्या है। जो कृष्ण कभी आँखों के आगे से न टलते थे, सदा पलकों पर रहते थे, हा! आज उनकी कहानी सुननी पड़ रही है! क्या से क्या हो गया है आज। जा थल कीनें बिहार अनेकन, ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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