प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहहमें और क्या चाहिए। उनसे हम कुछ न मांगेंगी। न जाने वे क्या जानकर संकोच कर रहे हैं। क्यों नहीं आते प्यारे श्याम! क्या कभी आयेंगे हमारे हृदय रमण कृष्ण? सखि, क्या कहा? तनिक फिर तो कह, फिर मृदु गिरा सुनूँ तेरी, क्या वह इतना भी जानता होगा कि हम उसकी पगली वियोगिनी हैं? सुनो- न कामुका हैं हम राज वेश की, पथिक! अब वीर वर वियोग की अजेय सेना से आवृत मुझ निस्सहाय का यह अंतिम संदेश वहाँ तक ले जाओ। कहना कि उसे अचानक ही उस सेना ने घेर लिया है। उस शूर शिरोमणि के विकट कटक का सामना करना आसान नहीं। बचने का अब उपाय भी कोई नहीं है। उसे अब सब तरह से हारा हुआ ही समझो। फिर भी प्यारे, तुम्हारे द्वार पर, समय रहते, उसकी सुनवायी न हुई, तो वह प्रेम का प्रण पालने वाला विरही बाहर निकलकर एक मोर्चा तो लेगा ही और प्रेम के रणांगण पर जूझकर धूल में मिल जायेगा। फिर, प्यारे! तुम्हारे उस विस्मृत की यह कहानी दुनिया में चल जायेगी तो क्या अब यही कराना चाहते हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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