प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 156

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम और विरह

भला पूछो तो, ये ललित लताएँ क्यों फूलों से फूल रही हैं। यह निश्चय है कि बिना प्यारे का स्पर्श किये इनमें ऐसी प्रफुल्लता आ ही नहीं सकती। इन लहलही लताओं ने अवश्य ही प्रियतम का स्पर्श सुख प्राप्त किया है। यही कारण है कि ये फूली नहीं समातीं। और, ये सुकुमारी मृग वधूटियाँ? धन्य इनके भाग्य! इनकी कैसी डहडही आँखें हैं! अभी अभी इन सुहागिनियों ने प्यारे श्यामसुंदर को कहीं देखा है। बिना नन्दनन्दन को प्यारी प्यारी झलक पाये नयनों में यह डहडहापन कैसे आ सकता है?

चाह भरी चात की चंद्रावली भी उस काले छलिया के पास अपनी विरह व्यथा का संदेशा भेजना चाहती है। वह भी आज यह भेद भाव भूल गयी है कि कौन जड़ है और कौन चैतन्य है! कैसी पगली है-

अहो पौन! सुख मौन, सबै थल गौन तुम्हारो।
क्यों न कहौ राधिका रौन सों मौन निवारो।।
अहो भँवर! तुम स्यामरंग मोहन ब्रतधारी।
क्यों न कहौ वा निठुर स्याम सों दसा हमारी?
हे सारस! तुम नीकें बिछुरन बेदन जानौ।
तौ क्यों प्रीतम सों नहिं मेरी दसा बखानौ।।
हे पपिहा! तुम ‘पिउ पिउ’ पिय रटत सदाई।
आजहुँ क्यों नहिं रटि रटि कै पिय लेहु बुलाई।। - हरिश्चंद्र

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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