प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहभला पूछो तो, ये ललित लताएँ क्यों फूलों से फूल रही हैं। यह निश्चय है कि बिना प्यारे का स्पर्श किये इनमें ऐसी प्रफुल्लता आ ही नहीं सकती। इन लहलही लताओं ने अवश्य ही प्रियतम का स्पर्श सुख प्राप्त किया है। यही कारण है कि ये फूली नहीं समातीं। और, ये सुकुमारी मृग वधूटियाँ? धन्य इनके भाग्य! इनकी कैसी डहडही आँखें हैं! अभी अभी इन सुहागिनियों ने प्यारे श्यामसुंदर को कहीं देखा है। बिना नन्दनन्दन को प्यारी प्यारी झलक पाये नयनों में यह डहडहापन कैसे आ सकता है? चाह भरी चात की चंद्रावली भी उस काले छलिया के पास अपनी विरह व्यथा का संदेशा भेजना चाहती है। वह भी आज यह भेद भाव भूल गयी है कि कौन जड़ है और कौन चैतन्य है! कैसी पगली है- अहो पौन! सुख मौन, सबै थल गौन तुम्हारो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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