बिरहाकुल ह्वै गईं सबै पूछति बेली बन।
को जड़, को चैतन्य, न कछु जानत बिरही जन।।
हे मालति! हे जाति! जूथकि! सुनि हित दै चित।
मान हरन मन हरन लाल गिरधरन लखे इत?
हे चंदन दुख दंदन, सबकी जरनि जुड़ावहु।
नँद नंदन, जगबंदन, चंदन हमहिं बतावहु।।
पूछो री! इन लतनि, फूलि रहिं फूलनि जोई।
सुंदर पियके परस बिना अस फूल न होई।।
हे सखि! ये मृगबधू इन्हैं किन पूछहु अनुसरि।
डहडहे इनके नैन अबहिं कहुँ देखे हैं हरि।।
हे असोक! हरि सोक लोकमनि पियहि बतावहु।
जे जमुना! सब जानि बूझि तुम हठहि गहति हौ।
जो जल जग उद्धार ताहि तुम प्रगट बहति हौ।।
हे अवनी! नवनीत चोर चित चोर हमारे।
राखे कितहुँ दुराय बता देउ प्रान पियारे।। - नन्ददास