प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहजो इस विरहानल से जलते जलते बच गया, उस पर आश्चर्य होता है- मधुबन! तुम कत रहत हरे? अस्तु, जो भी हृदयवान् होगा वह अवश्यमेव विरही के प्रति सहानुभूति दिखायेगा। हृदय हीन की बात दूसरी है। हृदय की विशालता, सच पूछो तो, एक विरही में ही देखी गयी है। उसके हृदय में होता है अपने प्यारे का ध्यान और उस ध्यान में होती है अखिल विश्व की व्यापकता। फिर क्यों न उसके व्यथित हृदय के साथ समस्त सृष्टि समवेदना प्रकट किया करे? विरह दशा में सारा संसार ही अपना सगा प्रतीत होने लगता है। सबके सामने हृदय खुला हुआ रक्खा रहता है। कुछ ऐसा लगा करता है कि सभी उस प्यारे को प्यार करने वाले हैं, सभी उस दिलवर के दीदार के प्यासे हैं। जिसकी हमें चाह है, इन्हें भी उसी की है। शायद इन सबको उस लापते का पता भी मालूम हो। विरहिणी गोपिकाएँ अपने वियुक्त प्रियतम का पता, देखो, पशु पक्षी, मधुप, लता विटप, नदी, पृथिवी आदि सभी से पूछ रही हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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