प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम और विरहनैननि चलौ रकत के धैरा। कंधा भीजि भयेउ रतनारा।। कैसी करुण कलापिनी कल्पना है! विरह कैसी विशद विश्व व्यापकता है! निस्संदेह प्रिय विरह समस्त प्रकृति में भर जाता है। अणु परमाणु तक विरही दिखायी देता है। सूर की एक सूक्ति है- ऊधो, यहि ब्रज बिरह बढ़्यो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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