प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम निर्वाहकितनी कठिन समस्या है! प्रे के पथ पर चले, तो छल कपट रूपी ठग साथ न हों; विश्वासरूपी मार्गव्यय भी चाहिए। इस पथ में कष्टों की हवा है, विरह की लूएँ चलती हैं और हृदय को दुख दावाग्नि में दग्ध करना पड़ता है। यहाँ शोक का नद है, जहा विषाद के भयंकर घड़ियाल पकड़ लेते हैं, और कठोरता की तेज धारा को थहाना पड़ता है। प्रेम है तो अत्यंत सुकोमल, किन्तु अंत तक उसका एकरस निभाना महान् कठिन है। इसी तरह बोधाने भी ऐसी ही अनेक कठिनाइयों का दिग्दर्शन कराते हुए अंत में यही निश्चय किया है- प्रेम करने में अपना क्या जाता है। मुफ्त ही आशिक बन जाने में अपना क्या बिगाड़ता है। पर, हाँ, आगे कठिनाई है। प्रेम का निभाना सुगम नहीं। वहाँ साँस फूलने लगती है, जी घबराने लगता है- नेहा सब कोऊत्र करै कहा करे में जात। कुछ भी हो, अब तो नेह निभाना ही है। भारी भूल होगी, ऐसा कहीं सचमुच कर न बैठना। प्रेम की निभाने में शरीर तक से हाथ धो बैठोगे। इसकी चिन्ता नहीं, शरीर रहे या जाय। कोई फिक्र नहीं, मन भी हाथ से छूट जाय, दिल भी जख्मी हो जाय, तन भी उसी में लग जाय। यह सिर भी हँसते हँसते प्रेम भगवान् के चरणों पर चढ़ा दिया जाएगा। जैसे बने तैसे अब तो प्रेम को अंत तक निभाना ही है- नेह निभाये ही बनै, सोचे बनै न आन। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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