प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्रीक्या ही सुंदर सूक्ति है- धिग व्योम्नो महिमानमेतु दलशः प्रोच्चैस्तदीयं पदं धिक्कार है उस महामहिम आकाश की महिमा को! उसका वह उच्च पद खण्ड खण्ड होकर गिर पड़े। उसे निन्दनीय गति प्राप्त हो। उस हृदय शून्य का न होना ही अच्छा है। अरे, वह कैसा नीच है। उसने अपने मित्र (सूर्य) का भी संकट के समय साथ न दिया। उस मित्र को भी हाथ का सहारा देकर न सम्हाला, जो श्रान्त, निस्तेज और निराश्रय होकर सहारे के लिए हाथ पसारे हुए था। उसके देखते देखते बेचारा विपत् सागर में डूब गया। धिक्कार है उस सहृदयता शून्य असीम आकाश के अतुल वैभव को। जिस जटिल जन्मान्तर के सिद्धांत के स्थिर करने में बड़े बड़े दार्शनिक पंडित परेशान रहते हैं, उसे हम कभी कभी प्रेम के विमल दर्पण में यो ही प्रतिविम्बित देख लिया करते हैं। बिना किसी कारण के, किसी व्यक्ति या किसी स्थान को पहली ही बार देखकर, यदि हमारे हृदय में एक अमन्द उत्साहमयी, अलौकिक आनन्दप्रदा और प्रेम सम्भूता ममता उत्पन्न हो जाय, तो क्यों न हम विश्वास कर लें कि उस व्यक्ति या उस स्थान के स्थान अवश्यमेव हमारा जननान्तर सौहार्द्र रहा आया है। किसी व्यक्ति के साथ इस प्रकार की दैवी प्रीति ही सत्य, नित्य और कल्याणकारिणी मैत्री है। जननान्तर सौहार्द्र पर कविताकामिनी कान्त कालिदास की कैसी सुंदर सरस सूक्ति है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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