प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 137

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम मैत्री

कैसे बिहाल बिवाइन सों भये, कंटक जाल गड़े पग जोये।

हाय, महादुख पाये सखा, तुम आये इतै न, कितै दिन खोये!
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोये।
पानी परात कौ हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जलसों पग धोये।। - नरोत्तमदास

वही, वास्तव में, लोकमान्य महापुरुष है जो एक दीन दरिद्र को अपना अभिन्न हृदय मित्र मानकर प्रेमपूर्वक उसकी सेवा करता है। कविवर रहीम ने कहा है-

जे गरीब पर हित करैं, ते ‘रहीम’ बड़ लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।

महान् की महत्ता इसी में है कि वह अपने दीन हीन सुहृदों के साथ सहृदयापूर्ण समवेदना प्रकटकर उन्हें अपनी आँखों पर बिठाये रहे। इसी में महामहिम की महिमा है, नहीं तो-

जिन के असि मति सहज न आई। ते सठ हठि कत करत मिताई।।

एक कवि ने हृदय शून्य व्यक्ति की तुलना महिमामय आकाश के साथ की है, जिसने विपत्ति के समय अपने मित्र सूर्य को क्षितिज में गिरते हुए सम्हालातक नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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