प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 136

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम मैत्री

गोसाईंजी ने कहा है-

बिपतिकाल कर सतगुन नेहा। स्रुति कह संत मीत गुन एहा।।
तथैव-
आपदकाल परखिये चारी । धीरज धर्म मित्र अरु नारी।।
अंग्रेजी की भी एक प्रसिद्ध कहावत है-
A friend in need is a friend indeed.

अर्थात्, जो गाढ़े समय पर काम आता है, वही अपना सच्चा मित्र है। तब नीर क्षीर की प्रेममयी मैत्री को ही हम आदर्श मैत्री क्यों न मानें?

जो अपने प्रिय मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उनका मुख देखना भी महापाप है। भगवान् रामचंद्रजी ने अपने सखा सुग्रीव से मैत्री धर्म की कैसी सुंदर व्याख्या की है-

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिनहि बिलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरिसम रज करि जाना। मीत क दुख रज मेरु समाना।।
जिन के असि मति सहज न आई। ते सठ हठि कत करत मिताई।।

मित्र के दुख से दुखी होना, उसके एक रज कण के समान दुख को सुमेरु सदृश मान कर प्राण पण से दूर करने पर उद्यत हो जाना हर किसी का काम नहीं है। जिसके हृदय में निष्काम प्रेम का दीपक जलता होगा, केवल वही अपने मित्र के रज कणवत् दुख का सुमेरु समान देख सकेगा। साथ ही उस दिव्य प्रकाश में उसे अपना गिरिसदृश दुख एक रज कण के समान दिखायी देगा। प्रेम के चश्मे की कैसी कुछ करामात है! पर्वत एक रज कण के सदृश दिखायी देता है और रज कण एक सुमेरु के समान! कहिये, इश्क की खुर्दबीन कहें या कलाँबीन, या दोनों ही?

मित्र के दुख से दुखी होना तो, बस श्रीकृष्ण ने जाना। एक दीन दरिद्र ब्राह्मण के साथ राजाधिराज यदुराज ने जो स्नेहपूर्ण सहानुभूति प्रकट की, जो प्रेम प्रीति का भाव दिखाया, वह आज भी मृतपाय मैत्री धर्म के लिए संजीवनी का काम दे रहा है। पथ परिश्रान्त सुदामा से आप पूछते हैं- तुमने बड़ा कष्ट पाया, भाई, यहाँ तभी क्यों न चले आये? इतने दिन यों ही दरिद्रता में कहाँ बिता दिये। मुझे तुम ऐसा भुला बैठे मित्र! मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया था? सखा के पैर बेवाइयों से फटे देखकर द्वारकाधीश व्याकुल हो गये। अरे, कितने काँटे लगकर टूट गये हैं मेरे प्यारे मित्र के पैरों में! गरीब सुदामा की यह दैन्यदशा देखकर करुणाकर श्रीकृष्ण करुणार्द्र हो रोने लगे। पैर पखारने को पानी परात में भरा रखा था, पर उसे आपने छुआ भी नहीं, प्राण प्रिय अतिथि के श्रान्त चरण भगवान् ने अपने प्रेमाश्रुओं से ही धोये। धन्य!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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