प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम मैत्रीगोसाईंजी ने कहा है- बिपतिकाल कर सतगुन नेहा। स्रुति कह संत मीत गुन एहा।। अर्थात्, जो गाढ़े समय पर काम आता है, वही अपना सच्चा मित्र है। तब नीर क्षीर की प्रेममयी मैत्री को ही हम आदर्श मैत्री क्यों न मानें? जो अपने प्रिय मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उनका मुख देखना भी महापाप है। भगवान् रामचंद्रजी ने अपने सखा सुग्रीव से मैत्री धर्म की कैसी सुंदर व्याख्या की है- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिनहि बिलोकत पातक भारी।। मित्र के दुख से दुखी होना, उसके एक रज कण के समान दुख को सुमेरु सदृश मान कर प्राण पण से दूर करने पर उद्यत हो जाना हर किसी का काम नहीं है। जिसके हृदय में निष्काम प्रेम का दीपक जलता होगा, केवल वही अपने मित्र के रज कणवत् दुख का सुमेरु समान देख सकेगा। साथ ही उस दिव्य प्रकाश में उसे अपना गिरिसदृश दुख एक रज कण के समान दिखायी देगा। प्रेम के चश्मे की कैसी कुछ करामात है! पर्वत एक रज कण के सदृश दिखायी देता है और रज कण एक सुमेरु के समान! कहिये, इश्क की खुर्दबीन कहें या कलाँबीन, या दोनों ही? मित्र के दुख से दुखी होना तो, बस श्रीकृष्ण ने जाना। एक दीन दरिद्र ब्राह्मण के साथ राजाधिराज यदुराज ने जो स्नेहपूर्ण सहानुभूति प्रकट की, जो प्रेम प्रीति का भाव दिखाया, वह आज भी मृतपाय मैत्री धर्म के लिए संजीवनी का काम दे रहा है। पथ परिश्रान्त सुदामा से आप पूछते हैं- तुमने बड़ा कष्ट पाया, भाई, यहाँ तभी क्यों न चले आये? इतने दिन यों ही दरिद्रता में कहाँ बिता दिये। मुझे तुम ऐसा भुला बैठे मित्र! मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया था? सखा के पैर बेवाइयों से फटे देखकर द्वारकाधीश व्याकुल हो गये। अरे, कितने काँटे लगकर टूट गये हैं मेरे प्यारे मित्र के पैरों में! गरीब सुदामा की यह दैन्यदशा देखकर करुणाकर श्रीकृष्ण करुणार्द्र हो रोने लगे। पैर पखारने को पानी परात में भरा रखा था, पर उसे आपने छुआ भी नहीं, प्राण प्रिय अतिथि के श्रान्त चरण भगवान् ने अपने प्रेमाश्रुओं से ही धोये। धन्य! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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