प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 126

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम पंथ

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं, हम नाहिं।
प्रेम गली अति साँकरी,तामें दो न समाहिं।।

प्रेम पंथ के इस अनधिकारी मूढ़ पथिक ने भी कुछ ऐसा ही आयँ- बायँ सायँ बक डाला है। उस बकवास पर कोई दाद तो न देगा, पर वह ऊटपटांग पद फिर भी लिखे देता हूँ। शायद उससे आपका कुछ मन बहलाव हो जाय-

खोर है रस की साँकरिया।।
पायनि गड़ि गड़ि जाय कसककी पैनी काँकरिया।।
तापै चलै न कोइ गरब की लैकैं गागरिया।
‘हरि’ घूमै इक प्रेम रंगीली पियकी नागरिया।।

इस मार्ग को प्रेमियों ने दुर्गम और सुगम दोनों ही रूप में दिखाया है। संत शिरोमणि कबीर ने एक साखी में यह कहा है कि-

पियका मारग कठिन है खाड़ा हो जैसा।

और दूसरी साखी में आप यह फरमाते हैं कि-

पियका मारग सुगम है, तेरा चलन अबेड़ा।

मार्ग तो बड़ा ही सरल और सुगम है, पर तेरा उस पर चलना ही ऊटपटाँग सा है। पगली, नाचना तो खुद जानती नहीं, आँगन को टेढ़ा बतलाती है। हाँ, सच तो है-

पिय का मारग सुगम है, तेरा चलन अबेड़ा।
नाच न जानै बावरी, कहै आँगना टेढ़ा।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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