प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम पंथअति छीन मृनाल के तारहुतें, तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है। सुई बेहतें द्वार सँकीन, तहां परतीतिकौ टाँड़ो लदावनो है।। इतनी तंग है वह रस भरी गली कि यह उन्मत्त मन धीरे धीरे बड़ी कठिनाई से उसमें जा सकता है। सुकवि उसमान लिखता है- प्रेम खोर महँ अति सँकराई। जतन जतन मन तहाँ समाई।। न जाने कितने पगले फकीर इस गली के चक्कर काटते देखे गये हैं। पर इस कृपाण धारा को कोई पार कर सका है, तो एक प्रेमोन्मत्त ही। प्रेमी का ही यहाँ निर्वाह है, नेमी का नहीं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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