प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम व्याधिदरद की मारी बन बन डोलूँ, बैद मिला नहिं कोय।। उस गरीब के कलेजे के अंदर एक घाव हो गया है। पर उस पर मरहम लगाना भी मना है, भले ही वह नासूर बन जाय- अब मेरे जख्मेजिगर! नासूर बनाना है तो बन; पड़ा पड़ा बेचैनी से बस कराहता रहता है। अच्छा तो हो सकता है, पर है उस मनमौजी वैद्य के हाथ की बात। कौन वैद्य? अरे, वही प्यारार साँवला वैद्य। प्रेम की सेज पर उसघायल को लिटा कर दिया वह वैद्य अपने सुंदर रूप की आँच से उसके घाव को सेंक दे, और अपनी बरौनियों की सूई लेकर आँखों के लाल डोरे से टाँके लगा दे,तो उसका जख्मेजिगर उसी वक्त ठीक हो जाय। और वैद्य महाराज ही उसे अपने लावण्य का मधुर हलुवा भी खिलाते जायँ, तब कहीं उसे उस इलाज से आराम मिलेगा। अब आप रसिकवर सहचरिशरणजी की सुधामयी वाणी में सुंदर भाव को सुनिये- उरमें घाव रूपसों सेंकै, हित की सेज बिछावै। वह साँवले हकीम साहब अब भी तशरीफ न लाये, तो फर रोगी के बचने की कोई आशा नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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