प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 101

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम व्याधि

दरद की मारी बन बन डोलूँ, बैद मिला नहिं कोय।।
मीरा की तब पीर मिटैगी, जब वैद सँवलिया होय।।

उस गरीब के कलेजे के अंदर एक घाव हो गया है। पर उस पर मरहम लगाना भी मना है, भले ही वह नासूर बन जाय-

अब मेरे जख्मेजिगर! नासूर बनाना है तो बन;
क्या करूँ इस जख्म पर मरहम लगाना है मना।

पड़ा पड़ा बेचैनी से बस कराहता रहता है। अच्छा तो हो सकता है, पर है उस मनमौजी वैद्य के हाथ की बात। कौन वैद्य? अरे, वही प्यारार साँवला वैद्य। प्रेम की सेज पर उसघायल को लिटा कर दिया वह वैद्य अपने सुंदर रूप की आँच से उसके घाव को सेंक दे, और अपनी बरौनियों की सूई लेकर आँखों के लाल डोरे से टाँके लगा दे,तो उसका जख्मेजिगर उसी वक्त ठीक हो जाय। और वैद्य महाराज ही उसे अपने लावण्य का मधुर हलुवा भी खिलाते जायँ, तब कहीं उसे उस इलाज से आराम मिलेगा। अब आप रसिकवर सहचरिशरणजी की सुधामयी वाणी में सुंदर भाव को सुनिये-

उरमें घाव रूपसों सेंकै, हित की सेज बिछावै।
दृग डोरे, सुइयाँ बर बरूनी, टाँके ठीक लगावै।।
मधुर सचिक्कन अंग अंग छबि हलुवा सरस खवावै।
स्याम तबीब इलाज करै जब, तउ घायल सचु पावै।।

वह साँवले हकीम साहब अब भी तशरीफ न लाये, तो फर रोगी के बचने की कोई आशा नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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