श्री द्वारिकाधीश-सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. शाल्व-शमन
'ठीक है किन्तु अब मुझे सीधे द्युमान के सम्मुख पहुँचाओ।' प्रद्युम्न ने उपचारकर्ताओं का निषेध नहीं सुना। वे रथ पर बैठे और रणभूमि में धनुष चढ़ाये पहुँचे। द्युमान अब रथारूढ़ था। वह सामान्य यादव सैनिकों से भिड़ा था। पहुँचते ही प्रद्युम्न ने उसके चारों अश्व मार दिये, सारथि को समाप्त कर दिया। धनुष काट दिया और एक बाण से उसक मस्तक शरीर से पृथक कर दिया। गद, सात्यकि, साम्ब प्रभृति विमान में स्थित शाल्व की सेना का संहार करने में लगे थे। यह अत्यन्त भयंकर संग्राम सत्ताइस दिन रात्रि अविराम चलता रहा। शाल्व को अपने विमान में आहार-विश्राम आदि की सब सुविधा प्राप्त थी। वह समझता था कि रात-दिन युद्ध करके यादवों को थका देगा। उसे यह भी देखने का अवकाश नहीं था कि द्वारिका के वाह्य भाग में जो थोड़ा ध्वंस उसके सैनिक कर सके थे वह भी कल्पवृक्ष के प्रभाव से उसी समय निश्चिह्न हो गया था। कल्पवृक्ष के कारण यादव वीरों को क्षुधा-पिपासा अथवा श्रमजन्य कष्ट हो ही नहीं रहा था। वे तो युद्ध प्रारंभ होने के क्षण के ही समान सशक्त और स्फूर्तिमय थे। सत्ताइस दिन रात्रि के अविराम युद्ध का परिणाम यह हुआ कि शाल्व अपने विमान में एकाकी रह गया। उसके सब सैनिक मारे गये। कुछ अत्यधिक घायल, जिनके हाथ-पैर कट गये उन्हें भी नीचे समुद्र में फेंकना ही था। विमान में शव या असाध्य घायल वह कहाँ रखता इतने दारुण युद्ध के समय। 'अभी या कभी नहीं!' शाल्व इसे समझता था। वह 'मरो या मारो' का निश्चय करके युद्ध में जुटा था। एकाकी हो जाने पर विमान से भाग जाता, किन्तु तभी गरुड़ध्वज रथ आ पहुँचा। अब भागना व्यर्थ था। अब भागता है तो श्रीकृष्ण को रथ से गरुड़ की पीठ पर पहुँचते देर नहीं लगेगी। श्रीकृष्णचन्द्र सर्वज्ञ है। शाल्व ने द्वारिका के लिए प्रस्थान किया तभी उन्होंने धर्मराज से विदा मांगी। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ में कहा था- 'मेरा वाम नेत्र और वाम भुजा फड़क रही है। मुझे लगता है कि शिशुपाल के समर्थकों ने मेरी राजधानी पर आक्रमण कर दिया है।' पांडवों ने अधिक आग्रह नहीं किया किन्तु सब महारानियाँ साथ थीं। उन सबको लेकर आना था। उनकी सुविधा, सुरक्षा का भी ध्यान रखना था। उनके लिए मार्ग में विश्राम आवश्यक था। इस प्रकार द्वारिका पहुँचने में बहुत देर हुई। श्रीकृष्णचन्द्र ने दूर से ही गगन में उड़ते सौभ-विमान को देख लिया। महारानियों को अन्तःपुर तक पहुँचाने का भार दूसरों पर छोड़ा और सारथि को सावधान किया- 'दारुक! यह शाल्व मायावी है, अतः कहीं भी भ्रम में मत पड़ना।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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