श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
48. देवर्षि का कुतूहल
यह योजना भी असफल हो गयी। महारानी जाम्बवती के भवन में बड़े उत्साह से प्रविष्ट हुए। देख लिया था कि श्रीद्वारिकाधीश कहीं दीखते नहीं। 'नारद जी कुछ और कहते किन्तु महारानी ने मुस्कराकर कहा- 'देवर्षि! आप ब्रह्मपुत्र होकर भी अब असत्य बोलने लगे हैं। वे भोजन करके अभी विश्राम कर रहे हैं। सुनेंगे कि आपके आने पर भी मैंने सूचना नहीं दी तो असंतुष्ट होंगे। आप विराजें, मैं उन्हें सूचित किये देती हूँ। 'महारानी क्षमा करें, मुझसे प्रमाद हो गया।' देवर्षि चकित रह गये- 'इस समय मैं शीघ्रता में हूँ।' 'मुझे सचमुच बहुत दुःख है कि इन्होंने मेरी सब दूसरी बहिनों की उपेक्षा कर दी हैं।' जाम्बवती जी के स्वर में सत्य स्पष्ट था- 'पता नहीं मुझ रीछ कन्या में इन्हें क्या दीखता है कि बहुत अनुरोध करने पर भी हँसकर टाल देते हैं और दूसरे किसी के सदन में जाते ही नहीं हैं। यह सदन और राज-सभा बस।' 'आप कभी-कभी तो मेरी किसी बहिन पर कृपा कर दिया करो।' देवर्षि ने सुन लिया कि महारानी कालिन्दी अपने स्वामी से हँसकर अनुरोध कर रही हैं- 'वे सब मुझे शाप देंगी कि मैं आपको उनके समीप ही नहीं जाने देती।' 'धर्मराज की स्वसा को शाप देने का साहस तो देवर्षि नारद में भी नहीं है।' श्रीकृष्णचन्द्र खुलकर हँस पड़े- 'जिसे मुझसे मिलना होगा उसके लिए तुमने अन्तःपुर में आने पर कोई प्रतिबन्ध तो लगा नहीं रखा है।' नारद जी चुपचाप वहाँ से निकल गये किन्तु वे जिस किसी रानी के भवन में गये, वहीं उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र मिल गये। कहीं वे द्वारिकाधीश स्नान करते, कहीं सन्ध्या या पूजन करते, कहीं भोजन करते, कहीं पौत्र या पौत्री को गोद में लिये, कहीं पुत्र अथवा पुत्री के विवाह की व्यवस्था करते या पुत्री की ससुराल भेजी जाने वाली सामग्री देखते कहीं राजसभा में या आखेट के लिए निकलने का उद्यत, कहीं वे बड़े भाई अथवा उद्धव या सात्यकि के साथ कुछ मन्त्रणा करते, कहीं ब्राह्मणों अथवा विद्याजीवियों को दान पुरस्कार देते, कहीं चरों अथवा मन्त्रियों की बात सुनते या उन्हें कुछ सम्मति देते मिले। किसी महारानी या रानी का भवन ऐसा नहीं मिला जिसमें श्रीकृष्णचन्द्र न हों ऐसे अनेक भवन मिले जहाँ से वे आखेट, राजसभा अथवा अन्यत्र कहीं जाने को उद्यत दीखे। अनेक भवनों में लगा कि कहीं बाहर से आये हैं। लेकिन मिले सभी भवनों में प्रत्येक भवन में ही ऐसे मिले जैसे सदा वहीं रहते हों और सम्पूर्ण शासन का संचालन वहाँ से करते हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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