भागवत सुधा -करपात्री महाराजश्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के मंगलमय मुखचन्द्र के सुमधुर अधरामृत का पान करके अगर रसोदेक हो गया, अगर मैं पल्लवित हो गयी, निश्छिद्र हो गई तो श्यामसुन्दर मुझे क्यों रखेंगे? त्याग देंगे। वह रसाभिव्यक्ति किस काम की जिससे प्रियतम विछुड़ जाँय। इसलिये अपने रस को यह छिपाये जाती है। ‘गुप्तप्रेम सखी सदा दुरैये’ प्रेम का सदा छिपाइये।’’ भावुकों का यह भी कहना है- सम्पूर्ण षड्भग (ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य) सम्पन्न अचिन्त्य अखण्ड अनन्त रस धर्मी पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान हैं। वपु से सप्त छिद्र हैं। अतः पट् छिद्रों द्वारा एक-एक भग-धर्म एवं सातवें छिद्र द्वारा षट्-धर्म सहित भगवान अधरसुधा द्वारा वंशी में प्रवेशकर, तद्द्वारा श्री ब्रजांगनाओं के हृदय में प्रवेश करते हैं। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। (समग्र ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री एवं सम्पूर्ण ज्ञान, वैराग्य जिनमें विद्यमान हों; उन्हें भगवान कहा जाता।) इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधे।।[2] शिव की आराधना के बिना इच्छित फल की प्राप्ति नहीं होती। महाराज दशरथ और जनक के बारे में कहते हैं- जनक सुकृत मूरति वैदेही। दशरथ सुकृत रामु धरे देही।। इनके समान किसी ने शिव की आराधना ही नहीं की। इनको शिव की कृपा से ही रामचन्द्र राघवेन्द्र परात्पर परब्रह्म मिले। तो श्रीकृष्णचन्द्र को भी राधारानी वृषभानुनन्दिनी जैसी दुलहिन पाने लिए तपस्या करनी पड़ी, शिव जी की आराधना करनी पड़ी। भगवान शंकर भी श्रीकृष्ण के मनोरथ को पूर्ण करने के लिए कैलास छोड़कर आए। बाँस बने। काटे-पीटे गये। तपायेगये। इसलिए कि बाँस की वंशी बनें और श्याम सुन्दर के मंगलमय मुखचन्द्र पर विराजें। श्रीकृष्ण ने वंश रूप रुद्र की उपासना की। उपासना के लिए पहले सिंहासन चाहिए। शिव जी को कहाँ विराजमान करायें? अपने मंगलमय मुखचन्द्र पर। श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का मुखचन्द्र ही रुद्ररूपी वंशी का सिंहासन बना। श्रीकृष्ण ने मुकुट को ही छत्र बना दिया। कानों के कुण्डलों से ही नीराजन (आरती) किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज