प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और सूरदासऊधो, मोहि ब्रज बिसरत नाहीं। मित्र उद्व! यशोदा मैया की वह अनन्त स्नेहमयी गोद क्या मुझे अब कभी बैठने को मिलेगी? कहाँ गये वे दिन, जब मैं मचल मचलकर अपनी मैया से माखन माँगा करता था। सखा, आज मेरा मन ब्रज की ओर उड़ सा रहा है। ऐं! मुझे क्या हो गया है, मित्र! सँभालो, मुझ सँभालो। बाबा, मुझे वहीं बुलालो। मैया, मुझे अपी गोद में बिठा ले। नेक सा माखन और दे, मेरी मैया! हा! आज सूर्य ग्रहण है पुण्य क्षेत्र कुरुक्षेत्र पर इधर से सब यादवों समेत बलराम और श्रीकृष्ण और उधर से गोप गोपियों सहित नन्द बाबा आये हैं। कैसा मणि कांचन योग अनायास प्राप्त हुआ है! नन्द यशोदा के सुख सिन्धु की थाह आज कौन ला सकता है। धन्य यह दिवस! उमग्यौ नेह समुद्र दसहुँ दिसि, परिमिति कही न जाय। कृष्ण बलराम ने बाबा और मैया का चरण स्पर्श किया। पगली यशोदा से आसीस भी न देते बनी। स्नेहाधिक्य से मूर्च्छित हो मैया गिर पड़ी। बलिहारी! तेरी यह जीवन भूरि, मिलहि किन माई! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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