प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और सूरदासमैया के गले से लिपटकर कुँवर कन्हाई भी रोने लगे। मेरी मैया, तूने मुझे पहचाना नहीं क्या? अरी, मैं तेरा वही लाल हूँ। तू मुझे, मैया, ब्रज से माखन मिश्री लायी है? लायी तो होगी,पर खिझा खिझाकर देगी। मैया, तू तो बोलती भी नहीं- अब हँसि भेटहु, कहि मोहि निज सुत, उसका समय का वह मिलन दृश्य जिस किसी ने देखा होगा, उसके भाग्य का क्या कहना- रोम पुलकि, गदगद सब तेहि छिन, प्रेम मूर्ति व्रजवासी आनन्द विह्वल हो कहने लगे- हम तौ इतने ही सुख पायौ। एक बार फिर यह दोहराना पड़ेगा कि वात्सल्य स्नेह का सूर जैसा भावुक और सच्चा चित्रकार न हुआ है, न होगा! सूर का वात्सल्य वर्णन पढ़कर, मैं तो दावे के साथ कहता हूँ कि अत्यंत नीरस हृदय में भी स्नेह और करुणारस की हिलोरें आन्दोलित होने लगेंगी। धन्य, सूर, धन्य! वास्तव में ‘तत्व तत्व सूरा कही।’ संगीताचार्य तानसेन कीक इस उक्ति में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है- किधौ सूर कौ सर लग्यौ, किधौं सूर की पीर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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