प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और सूरदासपर निठुर राम और कृष्ण अपनी मैया को बेसुध और भवन को सूना करके मथुरा को प्रयाण कर ही गये। गये तो थे चार दिन की कहकर। पर हो गये कई महीने! सुध भी न ली। कहाँ के बाबा, और कहाँ की मैया! कहाँ कौन कैसे है, कुछ याद भी न होगा। अब अपने सगे माता पिता से भेंट हो गयी है न! मैं तो उस निर्मोही गोपाल की एक धाय थी। उसने तो मुझे भुला दिया, पर मैं उस अपने लाल को कैसे भूलूँ? यह पथिक उधर रही तो जा रहा है। इसके द्वारा क्यों न महारानी देवकी की सेवा में कुछ संदेशा भेज दूँ। शायद उन्हें कुछ दया आ जाय, हृदय पसीज उठे और मेरे दुलारे कृष्ण को दस पाँच दिन के लिए यहाँ भेज दें- सँदेशों देवकी सो कहियो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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