प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और सूरदासठीक है नन्द रानी! ऐसा ही कहोगी! पर यह तो तुम जानती हो कि जिसे चोरी की चाट लग जाती है उसे फिर घर के हीरे मोती भी नहीं भाते? तुम्हारा यह पाँच वर्ष का तनिक सा गोपाल बड़ा नटखट है। हमें तो तुमसे न्याय की आशा थी। क्या यही तुम्हारा न्याय है? तुम सरासर अपने लाल का पक्ष ले रही हो। यही बात रही, तो फिर हम सब तुम्हारा गाँव छोड़कर किसी दूसरे गाँव में जा बसेंगी। क्या तुम्हारी ही छत्र छाया में सारा सुख है? यशोदा से अब तो सहन न हो सका। क्रोध आ ही गया। हाथ पकड़कर कृष्ण से पूछने लगीं- इस ग्वालिनी का दही माखन क्या तूने चुराकर खाया है? अरे, अपने घर में क्या कुछ कमी थी, रे? सच- सच बोल, नहीं तो मारे थप्पड़ो के तेरे गाल लाल कर दूँगी। उलाहने कहाँ तक सुनूँ। एक न एक गूजरी नित्य उलाहना लिए आँगन में खड़ी रहती है। इस पर, अब, पाँच वर्ष के बालक का जवाब सुनिये- मैया मेरी, मैं नाहीं दधि खायौ। तोतली वाणी में दिया हुआ यह विदग्धता पूर्ण उत्तर काम कर गया। यशोदा का क्रोध से भरा हृदय करुणार्द्र हो गया। उलाहना लाने वाली गोपियों की भी आँखें स्नेह से डबडबा आयीं। इतने में गोपाल ने ताली देकर हँस दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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