प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासगोसाईँजी के कहने का कैसा निराला ढंग है। इस जरा से इशारे में गजब का जोर भर दिया है। यों भी तो कहा जा सकता था कि ‘तुम बड़े निठुर हो जो मुझे निहाल नहीं करते।’ पर इसमें वह बात कहाँ, जो, में है। इतने पर भी क्या तुलसी के निठुर नाथ निठुर ही बने रहेंगे? यह तो कह ही चुका हूँ कि मैं आर्त हूँ, अतएव विवेकहीन हूँ। आर्त के कहने का कोई बुरा नहीं मानता। अपनी जड़ता के वश होकर कभी कभी तो मैं तुम्हारे किये सारे उपकारों को भुला बैठता हूँ। पर क्या मैं सचमुच ही कृतघ्न हूँ। न, मैं कृतघ्न नहीं हूँ; स्वामिन् तुम्हारे अगणित उपकारों को, भला, मैं भूल सकता हूँ। नाथ, तुमने मुझे क्या नहीं दिया। पर अभी मेरी तृष्णा पिपासा शान्त हुई नहीं। एक लालसा पूरी होने को अभी और है। वह यह कि- बिषय बारि मन मीन भिन्न नहिं, होत कबहुँ पल एक। मेरा मनरूपी मीन विषयरूपी जल से एक क्षण भी अलग नहीं होता। यह विषयीमन विषाक्त वासनाओं से तनिक भी नहीं हटता। इसी से मुझे जन्म लेता और मरता हूँ। इस विपत्ति से त्राण पाने का बस, एक उपाय शेष रह गया है। वह यह है कि अब अपनी कृपा की तो बनाओ रस्सी और तुम्हारे चरण में जो अंकुश (चिह्न) है, उसका बनाओ काँटा। उसमें परम प्रेम का कोमल चारा चपका दो। बस, फिर मन मीन को छेदकर विषय वारिसे बाहर निकाल लो, जिससे वह एकवृत्त होकर सदा तुम्हारा ही भजन करता रहे। मेरा दारुण दुख एक इसी उपाय से दूर हो सकता है। यह ‘मनोमत्स्य वेध’ नाथ, तुम्हारे लिए बड़ा कुतूहलजनक होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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