प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 237

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

इसके बाद मैं क्या करूँगा, सो सुनो-

जानकी जीवन की बलि जैहौं।
नातो नेह नाथ सों करि, सब नातो नेह बहैहौं।।

क्योंकि तुम्हारे साथ का नेह नाता ही इस जीवन का एकमात्र सारभाग है। तुम्हारे बिना जीना, जीना नहीं। वह जीवन ही किस काम का, जिसमें तुम न हो, तुम्हारा प्रेम न हो-

तिनतें खर सूकर स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै।
‘तुलसी’ जेहि राम सों नेह नहीं, सो सही पसु पूँछ विषान न द्वै।।
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै?
जरि जाउ सो जीवन, जानकी नाथ! जियै जग में तुमह्रो बिनुह्वै।।

मैं तो मान चुका हूँ कि तुम मेरे स्वामी हो, पर तुमने भी साथ, स्वीकार करलिया है या नहीं कि, ‘तुलसी हमारा है?’ न किया हो तो अब कर लो। शायद तुम मेरी छोटाई से डरकर मुझे अंगीकृत नहीं कर रहे हो। यह बड़ी आफत है। एक ओर ‘दीनबंधु कहलाने का शौक और दूसरी ओर दीनों के साथ से घिन, दोनों बातें एक साथ कैसे निभ सकती हैं। यदि तुम मेरी लघुता से न डरो तो एक पन्थ दो काज सध जायँ। मैं ‘सनाथ’ हो जाऊँ, और तुम्हें ‘अनाथ पति’ की उपाध मिल जाय। कहो, हो राजी?

हौं सनाथ ह्वैहौं सही, तुमहुँ अनाथपति,
जो लघुतहि न मितैहौ।

लघुता से डरना कैसा? बड़ा ख्याल करने की बात है- छोटे से क्यों डरने चला? यह तो कुछ अजीब सी बात है। नहीं, बात ठीक सीधी सी है। बड़े लोग बहुधा छोटों से डरा करते हैं। बात करना तो बहुत दूर है वे उनके सामने भी नहीं जा सकते। उन्हें यही भय लगा रहता है कि कहीं हम छोटे लोगों के पास खड़े हो गये तो दुनिया क्या कहेगी-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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