प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदासमेरी मुकुति विचारत हौ, प्रभु, पूछत पहर घरी। बस, इसी में मेरी तुम्हारी सदा निभ सकेगी। करना चाहो तो अब भी फैसला कर सकते हो; मौका अभी हाथ से निकला नहीं। बोलो, तारते हो या नहीं? नाथ! तुम मुजे अपना मानो या न मानो, पर हूँ मैं तुम्हारा ही। भला हूँ तो तुम्हारा और बूरा हूँ तो तुम्हारा। मेरी लाज तुम्हारे तुम बने रहो भले। मैं तो अब सब छोड़ छाड़कर तुम्हारी शरण में आ गया हूँ, तुम्हारे चरणों को आज पकड़ लिया है। सो, अब इस दास को अंगीकृत करो, इस पर अपनी छाप लगा दो। जैसे तुम रखोगे, वैसे रहूँगा। मैं तुम्हारी कोई खास कृपा नहीं चाहता। तुमसे क्या छिपा है। घट घट की जानते हो। अपना सुख दुख इस मुँह से क्या कहूँ। बस, यही विनय है- कमल नयन, घनस्याम, मनोहर, अनुचर भयो रहौं। अंगीकार भर कर लो, नाथ! मैं तुम्हारी हर तरह की रजा में राज़ी रहूँगा- जैसेहि राखौ तैसहि रहौं। क्या इसलिए नहीं अपना रहे हो कि मैं अवगुणों का आगार हूँ? सो तो निस्संदेह हूँ, नाथ! मेरे दोषों का कुछ पार! पर तुम्हें इस सबसे क्या? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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