प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमाश्रुत्वामप्यश्रुं जललवमयं मोचयिष्यत्यवर्श्य अर्थात्- तेरे हूँ आँसू, सखा, देगी अबस बहाय। ‘कई दरिया की धारें हो गई हैं’ अथवा ‘वै नद चाहत सिंधु भये, अब नाहिं तौ ह्वै हैं जलाहल सारे’ या ‘डगर डगर’ नै ह्वै रही, बगर बगर कैं बार’ अथवा ‘पानी ही पानी होगा हरेक घर के आसपास’ या ‘सुबह उठते ही आलम को डुबोवेंगे कल’ आदि अतिश्योक्तिपूर्ण पंक्तियाँ भी क्या, तेरे हूं आँसू, सखा, देगी अबस बहाय। कवियों! आँसुओं को ओस की बूँदें क्यों कहते हो। ओस की बूँदों को आँसू कहो तो एक बात है। हाँ, सचमुच ये ओस की बूँदें नहीं है! किसी विरही प्रेमी के साथ रो रोकर रात ने आँसू गिराये हैं, क्योंकि ये तो तुम जानते ही हो कि- सरस हृदय जन होत हैं बहुधा, मृदुल सुभाय।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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