प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेमाश्रुकवीन्द्र रवीन्द्र इस मञ्जुल भाव को और भी सुंतरता के साथ अंकित कर रहे हैं। सुनिये- “’In the moon thou sendest they love letters to me,” said the night to the sun, “I leave my answers in tears upon the grass” सूर्य से रात्रि कहती है- ‘चंद्रमा के द्वारा तुम मुझे प्रेम पत्र भेजा करते हो। मैं तुम्हारे उन पत्रों के उत्तर घास पर अपने आँसुओं में छोड़ जाती हूँ।’ कैसा मर्मस्पर्शी भाव है! आँसुओं को ओस की बूँदें मानने, और ओस की बूँदों को आँसू मानने में, कवियों! पृथ्वी आकाश का अन्तर है या नहीं? पहले भाव में केवल मनोरंजन है और दूसरे में रसात्मक हृदय स्पर्श। इसी तरह नीचे के इन दो भावों में भी कितना बड़ा अन्तर अंतर्हित है। एक तो वही मीर साहब की बात है, यानी, ‘सुबह उठते ही आलम को डुबोवेंगे हम’ और दूसरा भाव यह है अब स्वाभाविकता उसमें है या इसमें। अँसुवनि के परबाह में अति बूड़िबे डेराति। आँसुओं के प्रवाह में कहीं डूब न जाय, इस डर से, क्या करें, बेचारी नींद आँखों केपास अती तक नहीं। रोने वालों को सोना कहाँ। कवि कुल गुरु कालिदासजी भी यही शिकायत कर रहे हैं। कहाँ कवि कुल गुरु कालिदासजी भी यही शिकायत कर रहे हैं। मत्संयोगः क्षणमपि भवेत् स्वप्नजोऽपीति निद्रा- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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