श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
'वे सर्वलोकेश्वर हैं; किन्तु मेरे सखा हैं। मैं उनके पास रिक्त हस्त कैसे जाऊँगा।' ब्राह्मणी को मानो अभीष्ट वरदान मिला। वह प्रभात में ही चली गयी पड़ोस के घरों में और उनके यहाँ से कई घरों से माँगकर चार मुट्ठी चिउड़े एकत्र कर लायी। एक पुराने कपड़े से बाँधकर उन्हें पति को उसने दे दिया। पोरबन्दर (बन्दरगाह पुरी) यह अब संक्षिप्त नाम है सुदामापुरी का और तब तो यह छोटा-सा ग्राम मात्र था। सुदामापुरी तो वह तब बना जब सुदामा द्वारिका पहुँचे। वहाँ कुछ झोंपड़ों का-वेदज्ञ विप्रों के झोंपड़ों का तपोवन था। पैदल मार्ग से द्वारिका वहाँ से बहुत दूर नहीं थी। वैसे सुदामा जैसे दुर्बल, नियम-निष्ठ के लिए दूर ही थी। उनके अपने आह्निक कृत्यों को अत्यन्त संक्षिप्त करके यह यात्रा किसी प्रकार पूर्ण करनी पड़ी। समुद्र के मध्य द्वारिका का-वह स्वर्ग को भी तिरस्कृत करने वाला महानगर, वे मणि-भवनों की पंक्तियाँ। सुदामा जैसे ही सेतु-द्वार से बह्योपवन में पहुँचे, चकित रह गये। वे समझ नहीं पाते थे कि इन अतिशय सम्पन्न, सुन्दर देवोपम लोगों के नगर में तीन कक्षा-परिखा में और तीन महाद्वार पार करके वे कैसे अपने मित्र तक पहुँच पायेंगे। सुदामा ने कोई नगर भी नहीं देखा था। श्रीकृष्ण उन्हें गुरुकुल के तपोवन में मिले थे। समावर्तन के अनन्तर भी वे ग्राम के श्रद्धालुओं का आतिथ्य स्वीकार करते, नगरों से दूर-दूर ही रहते अपने पिता के आश्रम आ गये थे। सेतु के द्वार-रक्षकों ने उन्हें नमस्कार किया था और पूछने पर कहा था 'नगर की तीन कक्षाएँ तथा तीन गुल्म[1] पार करके आप नगर के मध्य भाग में श्रीद्वारिकाधीश के भवनों में पहुँचेंगे।' द्वारिका देखकर तो सुर भी चकित-विस्मित रह जाते थे, सुदामा तो नगर मात्र से अपरिचित थे; किन्तु द्वारिका के लोग बहुत श्रद्धालु, बहुत विनयी थे। जो भी मिलता था, सुदामा को वह देवता ही लगता था; किन्तु हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर प्रणाम करता था। द्वारिका में ब्राह्मण, साधु भगवद्भक्तों को सर्वत्र जाने का निर्बन्ध अधिकार था। सुदामा न पूछते तो उनसे कोई नहीं पूछता कि वे कहाँ जायेंगे। लोग विनय-पूर्वक वाहन त्यागकर उन्हें प्रणाम करते थे और मार्ग छोड़कर सविनय एक ओर खड़े हो जाते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाद्वार चौराहों पर बने
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