श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. सखा सुदामा
'श्रीकृष्ण का भवन कौन-सा है?' बहुत संकोचपूर्वक उन्होंने द्वारपाल से पूछा। 'मुझे अपने बालसखा श्रीकृष्ण से मिलना है।' सुदामा ने कहा। 'आप किसी भी सदन में उनसे मिल सकते हैं।' द्वारपाल एक ओर हट गया। 'यह कौन है?' इतना दुर्बल, अस्थि कंकाल पर केवल लिपटा चर्ममात्र, एक-एक स्नायु गिने जा सकें ऐसा दुर्बल, इतने मलिन फटे वस्त्र! द्वारिका में द्वारिका के इस सदन में भी तपस्वी मुनि बहुत आते हैं; किन्तु यह कृशता एवं कंगाली की साक्षात मूर्ति। दासियाँ चौंकी। उनकी चौंक से ही महारानी रुक्मिणी के साथ पर्यंक पर विराजमान श्रीद्वारिकाधीश की दृष्टि भी महाद्वार की ओर गयी। 'सुदामा! मेरे सखा सुदामा!' श्रीकृष्णचन्द्र शैय्या से उछलकर दौड़े अस्त-व्यस्त। पादुका वहीं गिर पड़ी। पादुका पड़ी रही। वे नग्न पद दौड़े और दौड़कर सुदामा को भुजाओं में भरकर वक्ष से लगा लिया। देर तक वक्ष से लगाये खड़े रहे। सुदामा धन्य हो गये। उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा। उनके नयनाश्रु श्रीकृष्ण के स्कन्ध आर्द्र कर रहे थे और श्रीकृष्णचन्द्र के कमल-लोचन भी झर रहे थे। उनका भी पूरा श्रीविग्रह रोमांचित था। 'धन्य हैं ये महाभाग।' सेवक-सेविकाएँ सब स्तब्ध। 'इतना कंगाल, इतना कृश और इतना असीम स्नेह इन पर द्वारिकाधीश का! इतने उल्लास से तो ये अग्रज से अथवा अर्जुन के आने पर उनसे भी नहीं मिला करते।' 'सुदामा' अपने स्वामी के मुख से रुक्मिणी जी ने यह नाम सुना है। अपने गुरुकुल की चर्चा में अनेक बार इस सखा का नाम लिया है उन्होंने। महारानी ने स्वयं शीघ्रतापूर्वक अर्ध्य देने, चरण-प्रक्षालन तथा अर्चन की सामग्री प्रस्तुत की। श्रीकृष्णचन्द्र इतने प्रेम विह्वल थे कि एक शब्द तक उनके मुख से निकल नहीं रहा था। सखा को हाथ पकड़कर ले आये और अपने रत्नासन पर बैठाकर स्वयं स्वर्णपात्र में उनके चरण धोने बैठ गये। 'हाय! क्या दशा है तुम्हारी! ये तुम्हारे श्रीचरण?' सुदामा की विवाइयों से भरे, पथ के कण्टकों से विद्ध पैर अपने किसलय करों में श्रीकृष्ण ने लिये और उनके कमललोचनों से धारा चलने लगी। जिनके चरण सौन्दर्य सौकुमार्य की अधिदेवता श्री भी अपने करों से स्पर्श करने में संकोच करती हैं, वे ब्राह्मण के चरण कर में लिये अपने अश्रु से धो रहे थे- 'तुम इतना क्लेश पाते रहे और यहाँ नहीं आये?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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