श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
ध्यान
‘नाथ! पुत्र, मित्र और घर से भरे हुए इस संसार सागर से आप ही दोनों मुझको बचाने वाले हैं; आप ही शरणागत के भय का नाश करते हैं। मैं जो कुछ भी हूँ और इस लोक तथा परलोक में मेरा कुछ भी है, वह सभी आज मैं आप दोनों के चरण कमलों में समर्पण कर रहा हूँ। मैं अपराधों का भंडार हूँ। मेरे अपराधों का पार नहीं है। मैं सर्वथा साधनहीन हूँ, गतिहीन हूँ। इसलिये नाथ! एकमात्र आप ही दोनों प्रिया प्रियतम मेरे गति हैं, श्रीराधिकाकान्त श्रीकृष्ण! और श्रीकृष्णकान्ते राधिके! मैं तन-मन-वचन से आपका ही हूँ और आप ही मेरे एकमात्र गति हैं। मैं आपके शरण हूँ, आपके चरणों पर पड़ा हूँ। आप अखिल कृपा की खान है। कृपा पूर्वक मुझ पर दया कीजिये और मुझ दुष्ट अपराधी को अपना दास बना लीजिये। जो भगवान श्रीराधाकृष्ण की सेवा का अधिकार बहुत शीघ्र प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकों को भगवान के चरण कमलों में स्थित होकर इस प्रार्थनामय मन्त्र का नित्य जप करना चाहिये। भगवान शंकर ने फिर नारदजी से कहा कि- ‘देवर्षि! मैं भगवान के मन्त्र का जप और उनका ध्यान करता हुआ बहुत दिनों तक कैलास पर रहा, तब भगवान ने प्रकट होकर मुझे दर्शन दिये और वर-माँगने के लिये कहा। मैंने बारंबार प्रणाम करके उनसे प्रार्थना की- ‘कृपासिन्धो! आपका जो सर्वानन्ददायी, समस्त आनन्दों का आधार नित्य मूर्तिमान रूप है, जिसे विद्वान लोग निर्गुण निष्क्रिय शान्तब्रह्म कहते हैं, हे परमेश्वर! मैं उसी रूप को अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ।’ |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ पहापुराण, पातालखण्ड
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज