श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियाँश्री भगवान से पाप या दुष्कर्म हों तो उससे भी हों; क्योंकि उसने तो सारी विषयासक्ति को छोड़कर अपने मन को भगवान का मन बना दिया है। इस दशा में भगवान के मन में आसक्ति वश पाप का भाव आये तो उसके भी आये। भगवान के द्वारा पाप-पुण्य होते नहीं, इसलिये भक्त भी पाप-पुण्य से अलग ही रहता है। अमृत चाहे विषका काम कर दे, शीतल जल चाहे जगत को भस्म कर दे, परंतु श्रीकृष्णप्रेमी भक्त से दुष्ट कर्म कदापि नहीं हो सकता। अतएव गोपियों के कार्यों में पाप देखना हमारे चित्त की पापमयी वृत्ति का ही फल है। थोड़ी दूर पर बातें करते हुए जवान बहिन-भाई की निर्दोष हँसी और बातचीत में भी कामी को काम के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार हम भी गोपी-प्रेमी काम देखते हैं। वास्तव में वहाँ तो काम था ही नहीं, गोपी प्रेम के सच्चे अनुयायियों में भी काम-गन्ध का नाश हो जाता है। श्री चैतन्यमहाप्रभु इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वहाँ तो केवल कृष्ण रह जाते हैं। उनके मन या नेत्रों के सामने दूसरी चीज न तो ठहरती है और न आती ही है! उन्हे त्रिभुवन श्याममय दीखता है। उनकी सारी इन्द्रियाँ केवल श्रीकृष्ण को ही विषय करती है। भगवान के आदेश से उद्धवजी व्रज में आकर गोपियों को समझाने लगे। उन्होंने अनेक उपदेश दिये, परंतु गोपिकाओं के प्रेम को देखकर उनकी सारी ज्ञानगरिमा गल गयी। वे प्रेम के निर्मल प्रवाह में वह गये।
|
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज