श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियाँकवि कहता है-
भगवान अपने इस तरह के भक्त के लिये कहते हैं कि वह तो मेरा आत्मा ही है- ‘आत्मैव में मतम्’ आत्मा क्या है, वह उससे भी अधिक प्यारा है-
‘उद्धव! मुझे ब्रह्मा, शंकर, संकर्षण, लक्ष्मी एवं अपना आत्मा भी उतने प्रिय नहीं हैं, जितने तुम-जैसे भक्त प्रिय हैं। (क्योंकि मेरा ऐसा भक्त मुझ में ही संतुष्ट है। उस मेरे सिवा और कुछ भी नहीं चाहिये)।’
‘इस प्रकार का मेरा प्रिय भक्त अपने आत्मा को मुझ में अर्पित कर देता है; वह मुझको छोड़कर ब्रह्मा के पद, इन्द्र के पद, चक्रवर्ती के पद, पाताल आदि के राज्य और योग की सिद्धियों आदि की तो बात ही क्या है, मोक्ष भी नहीं चाहता। (ऐसे मोक्ष-संन्यासी भक्तों को जो सुख मिलता है, उसे वे ही जानते हैं ) ऐसे इच्छिा रहित, मद्गतचित्त, शान्त निर्वैर और समदर्शी भक्तों की चरण-रज से अपने को पवित्र करने के लिये मैं सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ।’ |
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