श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम का स्वरूपयह प्रेम का प्राकट्य साक्षात भगवान का ही प्रकाश है। ऐसा प्रकाश किसी विरले ही प्रेमी महापुरुष में होता है। वास्तविक प्रेम में गुणों की अपेक्षा नहीं हैं। प्रेमी को अपने प्रेमास्पद में गुण-दोष देखने का अवकाश ही कहाँ मिलता है, वहाँ तो स्वाभाविक सहज प्रेम होता है। अथवा यों कह सकते हैं कि प्रेम गुणातीत होता है। वह तीनों गुणों की परिधि से परे की वस्तु है। प्रेम में कुछ भी कामन नहीं होती; क्योंकि प्रेम में प्रेमास्पद को सुखी देखने की एक इच्छा को छोड़कर अन्य किसी स्वार्थ की वासना ही नहीं रहती। उसका तो परम अर्थ केवल प्रेमास्पद ही है। जहाँ कुछ भी पाने की वासना है, वहाँ तो प्रेम का पवित्र आसन कुटिल काम के द्वारा कलक्ङित हो रहा है। अतएव प्रेम में कामना का लेश भी नहीं है। सच्चा प्रेम कभी घटता तो है ही नहीं, वरं वह सदा बढ़ता ही रहता है। प्रेम में कहीं परिसमाप्ति नहीं है। प्रेमी का सदा यही भाव रहता है कि मुझ में प्रेम की कमी ही है। किसी भी अवस्था में उसे अपना प्रेम बढ़ा हुआ नहीं दीखता, अतएव उसकी प्रत्येक चेष्टा स्वाभाविक ही प्रेम बढ़ाने की होती है। इस विच्छेद रहित प्रेम की सतत वृद्धि का क्रम कभी टूटता ही नहीं। यह विशुद्ध प्रेम दिन दूना, रात चैगुना बढ़ता ही रहता है। परम प्रेम के दिव्य रस में डूबा हुआ प्रेमान्दमय प्रेमी सर्वत्र अपने प्रेममय, रसयम प्रियतम को ही देखता है। उसे कहीं दूसरी वस्तु दिखती ही नहीं। उसके कान में जो कुछ भी ध्वनि आती है वह केवल प्रेममय के प्रेमसंगीत की स्वरलहरी की ही होती है; वह सर्वदा उसकी मुरली की मीठी तान में मस्त रहता है। इसी प्रकार उसके मुख से भी प्रेममय को छोड़कर दूसरा शब्द नहीं निकलता। वह प्रेममय का गुण गाते-गाते कभी थकता ही नहीं, बात-बात में उसे केवल दिव्य-प्रेमरसामृत का ही अनुपम स्वाद मिलता रहता है और वह अतृप्त रसनासे सदा उसी अमृत-रसपान में मत्त रहता है। उसके चित्त में तो दूसरे के लिये स्थान ही नहीं रह गया। वहाँ एकमात्र प्रियतम का ही अखण्ड साम्राज्य और पूर्ण अधिकार है। ऐसा थोड़ा-सा भी स्थान नहीं, जहाँ किसी दूसरे की कल्पना की स्मृति छाया रूप से भी आ सके। चित्त साक्षात प्रियतम के प्रेम का स्परूप् ही बन जाता है; यही नहीं, समस्त अंग केवल उसीका अनुभव करते हैं। सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उसी को विषय करती हैं। आँखें अहर्निश समपूर्ण विश्व को श्याममय देखती हैं। कान सदा उसी की मधुरातिमधुर शब्दब्रह्यमयी वेणुध्वनि सुनते हैं। |
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