श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम का स्वरूपनासिका नित्य-निरन्तर उसी नटवर के अंग सौरभ को ही सूँघती है। जिह्टा अविच्छित्ररूप् से उसी प्रेमसधा का आस्वादन करती है और शरीर सर्वदा उसी अखिल-सौन्दर्य-माधुर्यरसाम्बुधि रसराज परम सुखस्पर्श आनन्दकन्द श्रीन्दनन्दन के अनुपम स्पर्श-सुख का अनुभव करता है। आकाश में वही शब्द है, वायु में वही स्पर्श है, अग्रि में वही ज्योति है, जल में वही रस है और पृथ्वी में वही गन्ध बना हुआ है। सब में वही भरा है। सब में वही अपनी अनोखी रूप-माधुरी की झाँकी दिखा रहा है। सर्वत्र प्रेम-ही-प्रेम, आनन्द-ही-आनन्द है। भगवान में अनन्य प्रेम ही वास्तव तें अमृत है, वह सबसे अधिक मधुर है और जिसको यह प्रेमामृत मिल जाता है, वह उसे पाकर अमर हो जाता है। लौकिक वासना ही मृत्यु है। अनन्य प्रेमी भक्त हृदय में भगवत्प्रेमी की एक नित्य नवीन, पवित्र वासना के अतिरिक्त दूसरी कोई वासना रह ही नहीं जाती। इसी परम दुर्लभ वासना के कारण वह भगवान की मुनिमनहारिणी ललित लीला का एक साधन बनकर कर्म-बन्धन युक्त जन्म-मृत्यु के चक्कर से सर्वथा छुट जाता है। वह सदा भगवान के समीप निवास करता है और भगवान उसके समीप! प्रेमी भक्त और प्रेमास्पद भगवान का यह नित्य अटल संयोग ही वास्तविक अमरत्व है। इसी से भक्तजन मुक्ति न चाहकर भक्ति चाहते हैं- |
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