श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दिव्य प्रेमयह गोपियों का चीर-हरण है। जिस प्रेम में भय, लज्जा, संकोच तथा तनिक भी व्यवधान नहीं है ऐसा स्त्री-पुरुष का-पति-पत्नी का प्रेम हम जगत में देखते हैं। वहाँ कुछ भी ऐसी वस्तु नहीं रहती, जिसे गोपनीय कहा जा सकता है। यही लौकिक प्रेम जब अलौकिक दिव्य भाव बनकर भगवान के प्रति हो जाता है तथा पति-पत्नी के लौकिक सम्बन्ध से रहित, असम्बन्ध नित्य ‘दिव्य सम्बन्धरूप’ हो जाता है, तब वहाँ कुछ भी गोपनीय नहीं रहता। समस्त आवरणों का विनाश हो जाता है। यौन-भाव तो वहाँ रहता ही नहीं। यही भगवान तथा भक्त का अनावरण मिलन है। यहाँ माया का आवरण हट गया। पृथकृता पर्दा फट गया। चीरहरण तथा रास-लीला का अर्थ है-अनावृत (योगमाया के पर्दे से मुक्त), भगवान और अनावृत (अहंता-ममता-आसक्तिरूप माया के पर्दे से सर्वथा मुक्त) गोपाग़नाओं का महामिलन, जीव और परमात्मा का, भक्त और भगवान का घुल-मिल जाना-एक हो जाना। यही दिव्य भगवत्प्रेम है। इस प्रेम-राज्य में जिनका प्रवेश है, उनकी चरण-रज भी परम पावनी है। ज्ञानशिरोमणि उद्धवजी मोक्ष न चाहकर ऐसी प्रेमवती गोपियों की चरणधूलि प्राप्त करने के लिये व्रज में लता-गुल्म-ओषधि बनना चाहते हैं। औरों की तो बात ही क्या-भगवान स्वयं भी उनके चरण-धूलिकण से अपने को पवित्र करने के लिये उनके पीछे-पीछे सदा घूमा करते हैं- ‘उसके पीछे-पीछे मैं सदा इस विचार से चला करता हूँ कि उसके चरणों की धूलि उड़कर मुझपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।’
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