श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
चीरहरण-रहस्यगोपियाँ, जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान की अन्तरंग लीला में प्रविष्ट होने वाली हैं, चिरकाल से श्रीकृष्ण के प्राणों में अपने प्राण मिला देने के लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभ के समीप पहुँच चुकी हैं, अथवा जो नित्यसिद्धा होने पर भी भगवान की इच्छा के अनुसार उनकी दिव्य लीला में सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनमें हृदय के समस्त भावों के एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदय में बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालने के लिये साधना में लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियों से कितना प्रेम करते हैं- यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है। श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारों के आवरण अपने हाथ में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर बैठ गये। गोपियाँ जल में थीं; वे जल में सर्वव्यापक, सर्वदर्शी भगवान श्रीकृष्ण से मानो अपने को गुप्त समझ रही थीं-वे मानो इस तत्त्व को भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं हैं, स्वयं जलस्वरूप भी वे ही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्ण के लिये सब कुछ भूल गयी थीं, परंतु अब तक अपने को नहीं भूली थीं। वे चाहती थीं केवल श्रीकृष्ण को, परंतु उनके संस्कार बीच में एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतम के बीच में एक पुष्प का भी परदा नहीं रखना चाहता। प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधानरहित, अबाध और अनन्त मिलन। जहाँ तक अपना सर्वस्व-इसका विस्तार चाहे जितना हो-प्रेम की ज्वाला में भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँ तक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। इसी अपूर्णता को दूर करते हुए, ‘शुद्ध भाव से प्रसन्न हुए’ (शुद्धभावप्रसादितः) श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘मुझसे अनन्य प्रेम करने वाली गोपियों! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्व को और अपने को भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही। तुम्हारे हृदय में जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षण के लिये व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो?’ गोपियों ने मानो कहा-‘श्रीकृष्ण! हम अपने को कैसे भूलें? हमारी जन्म-जन्म की धारणाएँ भूलने दें, तब न। हम संसार के अगाध जल में आकण्ठ मग्न हैं। जाड़े का कष्ट भी है। हम आना चाहने पर भी नहीं आ पातीं। श्यामसुन्दर! प्राणों के प्राण! हमारा हृदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है। हम तुम्हारी दासियाँ हैं। तुम्हारी आज्ञाओं का पालन करेंगी। परंतु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।’ साधक की यह दशा-भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारों में ही उलझे रहना-माया के परदे को बनाये रखना बड़ी द्विविधा की दशा है। |
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