श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नम्र निवेदन संस्कृत-साहित्य में अवश्य ही इस प्रकार की सामग्री प्रचुर रूप में उपलब्ध है; परंतु वह यत्र-तत्र इतनी बिखरी पड़ी है कि उसके मर्म को हृदयंगम करते हुए उसका सम्यक्तया विश्लेषण तथा उपयोग करके समन्वित रूप देना श्री भाई जी जैसे पुरुष का ही काम था। मेरी समझ में इसमें भक्तिशास्त्र का मर्म एवं व्रज-साहित्य का निचोड़ बहुत कुछ आ गया है। इसमें जो कुछ लिखा गया है, वह वैष्णव-शास्त्र एवं रसिकसम्प्रदाय के सिद्धान्तों द्वारा पूर्णतया सम्मत है। मेरी अपनी मान्यता एवं विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रन्थ श्रीराधाकृष्ण के उपासकों के लिये अनुपम पथ-प्रदर्शन का काम करेगा। इस ग्रन्थ के मनोयोगपूर्वक अध्ययन-मनन से एवं इसमें वर्णित सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारने से मनुष्य परम दुर्लभ मोक्ष को भी लघु बना देने वाले भगवत्प्रेम के मार्ग में अनायास ही अग्रसर हो सकता है। मधुरभाव की साधना करने वालों के लिये भी यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। मधुरभाव की उपासना के नाम पर व्यक्तिगत जीवन में तथा समष्टिरूप समाज में बहुत गंदगी आयी है और आने की सम्भावना है। कारण, मधुर-रस का ‘पारा’ यदि विधिपूर्वक सेवन न किया गया तो वह फूट पड़ता है और सारे शरीर और मन को क्षत-विक्षित कर डालता है। इस ग्रन्थ में प्रस्तुत मधुरभाव की उपासना के सिद्धान्त के पकड़कर चलने वाले का नैतिक स्तर निरन्तर उन्नत होता जायगा और वह सांसारिक भोगों के दलदल से, नीच काम के चंगुल से निकलकर विशुद्ध प्रेम-राज्य में प्रवेश कर पायेगा। अन्त में यह निवेदन है कि इस ग्रन्थ में संग्रहीत सामग्री गत 35 वर्षों के सुदीर्घकाल में समय-समय पर तथा भिन्न-भिन्न अवसरों पर लिखी होने के कारण इसमें यत्र-तत्र पुनरुक्ति का दोष अवश्य दृष्टिगोचर होगा, यद्यपि जहाँ-जहाँ वह ध्यान में आया है, उसके निराकरण का प्रयास किया गया है— जिससे मूल लेखों का रूप कुछ विकृत भी हुआ है। किंतु लेखों में निरुपित विषयों के परस्पर सम्बद्ध होने के कारण कहीं-कहीं उन पुनरुक्तियों को उसी रूप में रखना अनिवार्य हो गया है। साथ ही प्रतिपाद्य विषय को हृदयंगम कराने के लिये कहीं-कहीं एक ही बात को बार-बार दोहराना आवश्यक भी होता है। फिर, इसमें आये हुए प्रसंग तो इतने मार्मिक, भावपूर्ण, रोचक एवं हृदयग्राही हैं कि उन्हें जितनी बार पढ़ा जायगा, वे हृदय को उतना ही पवित्र एवं भगवद्भाव से पुष्ट करेंगे। इन सब दृष्टियों से ये सब पुनरुक्तियाँ क्षम्य ही नहीं, अपितु सहृदय सज्जनों की दृष्टि में गुणाधायक ही सिद्ध होंगी। हाँ, यह बात अवश्य ध्यान में रखने की है कि जो सामग्री इस ग्रन्थ में संकलित की गयी है, वह ‘कल्याण’ की विगत 35 वर्षों की फाइलों में विभिन्न रूपों में बिखरी पड़ी थी। |
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