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श्रीराधारानी जो कुछ करती हैं, श्रीकृष्ण के सुख के लिये करती हैं और श्रीकृष्ण को सुखी देखती हैं तो उनके सुख से सुखी होने का स्वभाव होने के कारण श्रीराधारानी को अपार सुख होता है। इधर श्रीराधारानी को सुखी देखकर श्रीकृष्ण का सुख बढ़ता है; क्योंकि श्रीराधारानी उनकी प्रेमास्पदा हैं और उनको सुखी करने के लिये ही श्रीकृष्ण की प्रेमलीला होती है। इस प्रकार दोनों परस्पर एक-दूसरे को सुखी करते हुए और एक-दूसरे के सुख से अपने सुख की वृद्धि करते हुए लीला में संलग्न रहते हैं। श्रीगोपीजन इन्हीं श्रीकृष्ण की स्वरूपाशक्ति ह्लादिनी की घनीभूत मूर्तियाँ हैं, जो दिन-रात श्रीराधा-कृष्ण के मिलन-सुख में सुख का अनुभव करती हुई उनकी लीला में संयुक्त रहती हैं। यह लीला अत्यन्त दिव्य है। श्रीराधा और श्रीकृष्ण दोनों ही प्रेमी हैं-दोनों ही प्रेमास्पद हैं; इसी से भक्त कवि श्रीभगवतरसिकजी ने एक पद में कहा है-
- परस्पर दोउ चकोर, दोउ चंदा।
- दोउ चातक, दोउ स्वाती, दोउ घन, दोउ दामिनी अमंदा।।
- दोउ अरबिंद, दोऊ अलि लंपट, दोउ लोहा, दोउ चुंबक।
- दोउ आशिक, महबूब दोउ मिलि, जुरे जुराफा अंबक।।
- दोउ मेघ, दोउ मोर, दोउ मृम, दोउ राग रस-भीने।
- दोउ मनि बिसद, दोउ बर पंनग, दोउ बारि, दोउ मीने।।
- भगवतरसिक बिहारिनि प्यारी, रसिक बिहारी प्यारे।
- दोउ मुख देखि जिअत, अधरामृत पियत, होत नहिं न्यारे।।
परंतु इन्हीं भगवतरसिकजी ने ठीक ही कहा है-
- भगवतरसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।
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