श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘जैसे श्रीकृष्ण विकाररूपा प्रकृति से परे ब्रह्मस्वरूप हैं, वैसे ही श्रीराधाजी प्रकृति से परे निर्लिप्त ब्रह्मस्वरूपा हैं।’ यहाँ यह प्रश्न होता है कि भगवान तथा उनकी शक्ति श्रीराधाजी एक ही काल में एक ही साथ ‘निर्गुण भी, सगुण भी’, ‘निराकार भी, साकार भी’, ‘अव्यक्त भी, व्यक्त भी’ आदि कैसे हैं? इसका उत्तर स्पष्ट है कि भगवान सर्वथा, सर्वदा, स्वभावतः ही नित्य ‘परस्परविरोधिगुणधर्माश्रयी’ हैं। वे अजन्मा होते हुए भी जन्म लेते हैं, अविनाशी होते हुए भी अन्तर्धान होने की लीला करते हैं, समस्त लोकों के महान् ईश्वर होते हुए भी भक्तों के पराधीन रहते हैं
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जिनके भीतर-बाहर नहीं हैं, पूर्वा पर नहीं हैं, जो जगत् के पूर्व भी हैं, पर भी हैं, बाहर भी हैं, भीतर भी हैं, जो स्वयं जगत् हैं, वे अव्यक्त नराकृति ब्रह्म यशोदा मैया के हाथों उनके अपने प्राकृत पुत्र की तरह ऊखल में रस्सी से बँध जाते हैं।
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वे एक होकर भी असंख्य गोपियों के साथ असंख्य रूपों में रासक्रीडा करते हैं। उनमें एक ही साथ बृहत्त्व और क्षुद्रत्व, विभुत्व और अणुत्व, अपरिच्छिन्नत्व और परिच्छिन्नत्व विद्यमान रहते हैं। इसी प्रकार उनकी स्वरूपा-शक्ति राधिका में भी ‘परस्परविरोधी गुण-धर्म’ साथ-साथ रहते हैं। वे भी निर्गुण, निराकार, निर्लिप्त, आत्मस्वरूप, निरीह, निरहंकार होते हुए नित्य दिव्य भावविग्रहरूपा हैं तथा भक्तानुग्रहविग्रहा हैं-
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- ↑ गीता 4। 6
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायाया।। - ↑ श्रीमद्भागवत 10। 9। 13-14
न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम्।
पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च यः।।
तं मत्वाऽऽत्मजमव्यक्तं मर्त्यलिंगमधोक्षजम्।
गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा।।
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