श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इसी से केवल ब्रह्म को प्राप्त होना समग्र-भगवान को पूर्णरूप से प्राप्त होना नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान की परानिष्ठा का वर्णन करते हुए ‘विशद्ध बुद्धि’ आदि साधनों के द्वारा ‘ममतारहित’ तथा ‘प्रशान्त-अन्तःकरण’ होने पर ब्रह्मभाव की योग्यता का प्राप्त होना बतलाते हैं। इसके बाद कहते हैं-
‘वह साधक साधना के परिपक्क होने पर ब्रह्मरूप हो जाता है। (तदनन्तर उस ब्रह्म के साथ एकात्मता को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि) वह प्रसन्नात्मा (आनन्दमय) हो जाता है, न शोक करता है, न आकांक्षा करता है और सब भूतों में समत्व-लाभ कर चुकता है।’ पर अभी भगवान को ‘जो कुछ तथा जैसे कुछ वे हैं’ - ‘यावान् यश्चास्मि’ उस रूप में तत्त्वतः जानना अवशेष रह जाता है। अतः इसके बाद भगवान कहते हैं कि वह साधक मेरी (भगवान की) पराभक्ति- (परमप्रेम) को प्राप्त करता है - ‘मद्भक्ति लभते पराम्’, जिसके द्वारा वह साधक भगवान को समग्ररूप से जानकर उनकी लीला में प्रविष्ट हो जाता है।
‘शास्त्रों में जगदीश्वर को जो निर्गुण कहा गया है, इससे उनमें किसी हेयगुण (प्राकृतिक सत्त्वादि) गुणों के संयोग का ही अभाव बतलाया गया है।’ इसी से वे निर्गुण हैं। |
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- ↑ गीता 18। 54
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