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श्रीराधाका स्वरूप और महत्त्व
‘देखो, मैं अभी आवश्यक कार्य में व्यस्त हूँ, तुम इस समय मुझे अच्छी नहीं लगती।’ पुत्र-पौत्रादि के स्नेह में सनी बुढ़िया पत्नी भी यदि पति उसके प्रतिकूल कुछ बोलता है तो उसे बुरा मान जाती है, अलग रहना चाहती है। एक बार एक बु़िढ़या माईके मुख से यहाँ तक सुना था कि ‘यह बूढ़ा अब तो मर जाय तो सब सुखी हो जाँय।’ प्यारे पति के मरण में दुःख तो होता ही नहीं, वह मरण मनाती है। पुत्र के प्रति पिता, पिता के प्रति पुत्र आदि में भी ऐसे कुभाव आ जाते हैं। बहुत दिनों के बीमार अत्यन्त आत्मीय से भी मन ऊब जाता है और प्यारे घर वाले यह मनाने लगते हैं कि ‘अब तो ईश्वर इनकी सुन लें, इनको उठा लें तो ये भी सुखी हो जायँ और घरवाले भी।’
बन्धु-बान्धवों और इष्ट-मित्रों का त्याग तो मन की प्रतिकूलता में तुरंत हो जाता है। इसका प्रधान कारण है संसार में सभी अपने मन के अनुकूल अपना सुख चाहते हैं। इसलिये जहाँ तक जिससे सुख मिलता है या मिलने की आशा-सम्भावना रहती है, वहाँ तक प्रेम-प्रियता रहती है। पर सुख के स्थान पर जहाँ दुःख दिखायी देता है या दुःख की सम्भावना भी दीखने लगती है, वहीं वह प्रेम-प्रियता नष्ट हो जाती है। किंतु विशुद्ध प्रेम में स्वसुख की वासना का लेश भी नहीं रहता। इसी से वहाँ प्रियतम के सुख के लिये उनके प्रति सहज ही सम्पूर्ण समर्पण हो जाता है और ऐसा वह निर्मल प्रेम पल-पल बढ़ता रहता है - ‘प्रतिक्षणवर्धमानम्।’ इस विशुद्ध प्रेमामृत में एक ऐसा सुदुर्लभ दिव्य महान माधुर्य रहता है, जिसके रसास्वादन के लिये परम रसामृतस्वरूप स्वयं भगवान भी नित्य प्रलुब्ध और लालायित रहते हैं और इसीलिये स्वयं ह्लादात्मा- आत्यन्तिक सुख-स्वरूप होते हुए ही वे समर्पणमय प्रेमियों के परम विशुद्ध दिव्य मधुर रस का सुखास्वादन भी करते हैं और वितरण भी किया करते हैं।
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