श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा के तत्त्व-स्वरूप-लीला का पुण्यस्मरणइस प्रसंग पर ललितमाधवनाटक का एक श्लोक है-
‘गोपांगनाओं के पशुपेन्द्रनन्दन (नन्दनन्दन) निष्ठ और दुरूह मार्ग पर चलने वाले भाव की प्रक्रिया को (एकमात्र व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण ही गोपियों के इस कान्ता-प्रेम के विषयालम्बन हैं- इस भाव की पद्धति को) समझने में कौन कृती व्यक्ति समर्थ है? क्योंकि आश्चर्य का विषय है कि अपने द्विभुज रूप को छिपाने के लिये स्वयं श्रीनन्दनन्दन ही यदि अपने शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी विजयशील चार भुजाओं के द्वारा सुशोभित अपनी ही विष्णुमूर्ति प्रकट करते हैं तो उससे भी गोपांगनाओं के अनुराग का उल्लास- कान्ताभाव का प्रेम संकुचित हो जाता है।’ किसी कल्प में एक समय श्रीकृष्ण के विरह से अधीर होकर श्रीराधाजी यमुना में कूद पड़ी थीं; यह देखकर विशाखादि सखियाँ भी यमुना में कूद गयीं। तब सूर्यसुता यमुनाजी उसको सूर्यलोक में ले जाकर सूर्यदेवता की देख-रेख में छोड़ आयीं। वहाँ भी श्रीकृष्ण के वियोग में राधाजी अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। तब सूर्यपत्नी छाया ने श्रीराधा को सान्त्वना प्राप्त कराने के लिये एक उपाय सोचा। छायादेवी ने विचार किया कि ‘सूर्यमण्डल-मध्यवर्ती श्रीनारायण स्वरूपतः श्रीकृष्ण के अभिन्न हैं। अतः सूर्यमण्डल-स्थित नारायण ही श्रीराधा के प्रियतम हैं, उनसे मिलते ही श्रीराधा को सान्त्वना प्राप्त हो जायगी।’ यह सोचकर उन्होंने राधा से कहा- ‘राधे! तुम व्याकुल मत होओ, तुम्हारे प्राणवल्लभ इस सूर्यमण्डल में ही स्थित हैं।’ |
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