श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा के तत्त्व-स्वरूप-लीला का पुण्यस्मरणइस मधुर प्रेमराज्य में ममता ओर राग का परित्याग नहीं है, वरं उसका सर्वतोभावेन प्रियतम श्रीनन्दनन्दन में नियोजन है। प्रेमियों में जो त्याग-वेराग्य देखा जाता है, वास्तविक होने पर भी वह अद्वितीय विषयालम्बन श्रीकृष्ण में परमानुराग का आनुषंगिक फल ही। उनका यह वैराग्य संसार-बन्धन से मुक्त होकर स्वयं मुक्तिसुख प्राप्त करने के लिये नहीं है, वह केवल ‘श्रीकृष्ण-सुखार्थ’ - ‘श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ’। विषय-विराग वस्तुतः प्रेम-रस-कल्प वृक्ष का मूल नहीं है। भगवच्चरणों में अनन्य अनुराग ही मूल है। इसलिये प्रेमी रसिकजन न तो स्व-सुखार्थ किसी वस्तु या स्थिति को स्वीकार करते हैं और न त्याग ही करते हैं। उनके लिये प्रेम-रस में बाधक जो कुछ भी कुरस, विरस, अरस है, वह सहज ही हेय, घृणित, अनावश्यक, अरुचिकर तथा सर्वथा त्याज्य है। इसी से इस प्रेम-राज्य में शान्तरस का प्राधान्य तो है ही नहीं, उसका विशेष आदर भी नहीं है; क्योंकि यहाँ ममता, राग, विषय-संग्रह आदि सभी कुछ हैं। अवश्य ही वह सारी ममता, आसक्ति है- परम प्रियतम नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में ही और सारे विषय भी उन्हीं के सेवन के लिये हैं। यहाँ श्रीकृष्ण की भगवत्ता या उनके परमेश्वर की कोई पूछ नहीं है। यहाँ तो, बस, एक ही वस्तु है- ‘श्रीकृष्ण ही हमारे हैं, केवल वे ही हमारे हैं।’ यों सारी ममता उन्हीं में केन्द्रित है। यहाँ दास्य, सख्य, वात्सल्य उत्तरोत्तर विकसित रूप हैं; पर उनमें भी सारा ममत्व केवल श्रीकृष्ण में ही समर्पित है। मधुर-रस की सजीव प्रतिमा श्रीराधामुख्या गोपांगनाओं में तो इस भाव का अतुलनीय असीम पूर्ण प्रकाश है। श्रीनारदपन्चरात्र में प्रेम का लक्षण बतलाया गया है -
‘जिस भक्ति में सम्पूर्ण सांसारिक प्राणि पदार्थों के प्रति ममता दूर होकर एकमात्र श्रीभगवान में ही अनन्य ममता हो जाती है, श्रीभीष्म पितामह, प्रह्लाद, उद्धव और देवर्षि नारद आदि महात्माओं ने उसी को प्रेम कहा है।’ |
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