श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-महिमासाधारण नायक-नायिका के श्रृंगार-रस की तो बात ही नहीं करनी चाहिये, उच्च-से-उच्चतर पूर्णता को पहुँचा हुआ दाम्पत्य-प्रेम का श्रृंगार भी अहंकारमूलक सुतरां कामप्रेरित होता है; वह स्वार्थपरक होता है, उसमें निज सुख की कामना रहती है। इसी से इसमें और उसमें उतना ही अन्तर है, जितना प्रकाश और अन्धकार में होता है। यह विशुद्ध प्रेम है और वह काम है। मनुष्य के आँख न होने पर तो वह केवल दृष्टि शक्ति से ही हीन— अन्धा होता है, परंतु काम तो सारे विवेक को ही नष्ट कर देता है। इसी से कहा गया है— ‘काम अन्धतम, प्रेम निर्मल भास्कर’ काम अन्धतम है, प्रेम निर्मल सूर्य है। इस काम तथा प्रेम के भेद को भगवान् श्रीराधा-माधव की कृपा से उनके बिरले प्रेमी भक्त वैसे ही जानते हैं, जैसे अनुभवी रत्न-व्यापारी— जौहरी काँच तथा असली हीरे को पहचानते और उनका मूल्य जानते हैं। काम या काममूलक श्रृंगार इतनी भयानक वस्तु है कि वह केवल कल्याण-साधन से ही नहीं गिराता, सर्वनाश कर डालता है। काम की दृष्टि रहती है अधः इन्द्रियों की तृप्ति की ओर, एवं प्रेम का लक्ष्य रहता है ऊर्ध्वतम सर्वानन्द स्वरूप भगवान् के आनन्दविधान की ओर। काम से अधःपात होता है, प्रेम से दिव्यातिदिव्य भगवद्रस का दुर्लभ आस्वादन प्राप्त होता है। काम के प्रभाव से विद्वान् की विद्वत्ता, बुद्धिमान् की बुद्धि, त्यागी का त्याग, संयमी का संयम, तपस्वी की तपस्या, साधु की साधुता, विरक्त का वैराग्य, धर्मात्मा का धर्म और ज्ञानी का ज्ञान-बात-की-बात में नष्ट हो जाता है। इसी से बड़े-बड़े विद्वान् भी ‘राधाप्रेम’ के नाम पर, उज्ज्वल श्रृंगाररस के नाम पर पापाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं और अपनी विद्वत्ता का दुरुपयोग करके लोगों में पाप का प्रसार करने लगते हैं। अतएव जहाँ भी लौकिक दृष्टि है, भौतिक अंग-प्रत्यंगों की स्मृति है, उनके सुख-साधन की कल्पना है, इन्द्रिय-भोगों में सुख की भावना है; वहाँ इस दिव्य श्रृंगाररस के अनुशीलन का तनिक भी अधिकार नहीं है। रति, प्रणय, स्नेह, मान, राग, अनुराग और भाव के उच्च स्तरों पर पहुँची हुई श्रीगोपांगनाओं में सर्वोच्च ‘महाभाव’ रूपा श्रीराधा की काम-जगत् से वैसे ही सम्बन्ध-लेश-कल्पना नहीं है, जैसे सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश में अन्धकार की कल्पना नहीं है। |
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