श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा-महिमाइस रहस्य तत्त्व को भलीभाँति समझकर इसी पवित्र भाव से जो इस राधा-माधाव के श्रृंगार का अनुशीलन करते हैं, वे ही वास्तव में योग्य अधिकार का उपयोग करते हैं। नहीं तो यह निश्चित समझना चाहिये कि जो लोग काममूलक वृत्ति को रखते हुए इस श्रृंगाररस के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, उनकी वही दुर्दशा होगी, जो मधुरता के लोभ से हलाहल विषपान करने वाले की या शीतलता प्राप्त करने की अभिलाषा से प्रचण्ड अग्निकुण्ड में उतरने वाले की होती है। यह स्मरण रखना चाहिये कि योग्य अधिकारी ही इस श्रीराधारानी के दिव्य श्रृंगार-राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। इस दिव्य प्रेम-जगत् में प्रवेश करते ही एक ऐसे अनिर्वचनीय परम दुर्लभ विलक्षण दिव्य चिदानन्दमय रस की उपलब्धि होती है कि उससे समस्त विषयव्यामोह तो सदा के लिये मिट ही जाता है, दुर्लभ-से-दुर्लभ दिव्य देवभोगों के आनन्द से ही नहीं, परम तथा चरम वान्छनीय ब्रह्मानन्द से भी अरुचि हो जाती है। श्रीराधा-माधव ही उसके सर्वस्व होकर उसमें बस जाते हैं और उसको अपना स्वेच्छा-संचालित लीलायन्त्र बनाकर धन्य कर देते हैं। ऊपर जो कुछ लिखा गया है वह मेरी धृष्टतामात्र ही है। वास्तव में मेरे-जैसे नगण्य जन्तु का श्रीराधा के सम्बन्ध में कुछ भी लिखने जाना अपनी अज्ञता का परिचय देने के साथ श्रीराधारानी का भी एक प्रकार से तिरस्कार करना ही है। पर इस तिरस्कार के लिये तो वे स्वयं ही दायी हैं; क्योंकि उन्हीं की अन्तःप्रेरणा से यह लिखा गया है। |
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