श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
इतने पर भी राधा कभी अपने को न तो उनके प्राणों की अधिष्ठातृदेवी मानती हैं और न उनके द्वारा आराध्या ही मानती हैं। वे सदा ही विनम्र हृदय से प्रार्थना करती रहती हैं-
‘प्रभो! तुम्हारे चरण-सरोज में मेरा मनरूपी भ्रमर निरन्तर भ्रमण करता रहे और जैसे वह मधुप कमल का मधुपान करता है, वैसे ही यह प्रेम रस पान करता रहे। जन्म-जन्म में तुम्हीं मेरे प्राण नाथ होओ और मुझे अपने पद-पंकज में सुदुर्लभ प्रेम-भक्ति प्रदान करो। प्रभो! मेरे मन की यही एक मात्र चाह है कि मेरा चित्त स्वप्न और जागरण- सभी अवस्थाओं में दिन-रात केवल तुम्हारी ही स्मृति और गुणों में डूबा रहे। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ ब्र. कृ. 27। 230-232