श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मैं इन प्रेमिकाशिरोमणि परम सती राधारानी तथा श्रीगोपीजनों के प्रेम का बदला कभी नहीं चुका सकता, सदा इनका ऋणी ही रहूँगा।’ और श्रीराधारानी तथा श्रीगोपांगनाएँ अपने में नित्य हीनता-दीनता के दर्शन तथा बखान करती हुई यह कहते कभी नहीं थकतीं कि ‘हम तो सदा लेती-ही-लेती है, हमारे अंदर तो दोष-ही-दोष भरे हैं; यह तो प्राण नाथ प्रभु का स्वभाव है जो वे सदा हमारे अंदर प्रेम देखते हैं।’ श्रीराधामुख्या गोप सुन्दरियों को लक्ष्य करके श्रीश्यामसुन्दर कहते हैं- ‘श्रीराधाजी, श्रीगोपिकाओं, प्रियाओं! मैं सदा ही तुम्हारा ऋणी हूँ और वह तुम्हारा ऋण क्षण-क्षण नया-नया बढ़ता ही जा रहा है। उसके घटने का तो कभी अवसर आता ही नहीं। ऋण तो तब कम हो, जब मैं, तुम लोग मुझे जो सुख दे रही हो, उससे अधिक विशेष सुख तुम्हें दे सकूँ। पर तुम्हारे सुख विशेष का एक मात्र साधन यह है कि मैं तुम लोगों के द्वारा अपना सुख अधिक बढ़ाऊँ और यों जैसे-जैसे तुम्हारे द्वारा मेरा नया सुख बढ़ेगा, वैसे-ही-वैसे प्रतिक्षण तुम्हारा नित्य नवीन ऋण मुझ पर चढ़ता जायगा। इस प्रकार तुम्हारे ऋण-शोधन का यदि मैं कुछ भी उपाय करूँगा तो तुम्हारा ऋण उलटे मुझ पर बढ़ेगा ही। अतएव मेरे पास ऐसा कोई साधन है ही नहीं, जिससे मैं तुम्हारा ऋण भर सकूँ।’ ‘तुम अपना तन-मन-धन-जीवन सभी अर्पण करके केलव मेरा ही सुख साध रही हो। धर्म, लोक, परलोक, स्वजन, कुल-सबका त्याग करके मेरी ही आराधना करती हो। इस ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता और होना चाहता भी नहीं। मैं समझता हूँ इस प्रकार तुम्हारे द्वारा सुख प्राप्त करके अपने ऊपर तुम्हारा जो ऋण बढ़ाना है- बस, यही तुम्हारी सेवा है और मैं चाहता हूँ कि इस सेवा का नित्य नया सुअवसर प्राप्त करके मैं अपने मन को नित्य नवीन उमंग से भरता रहूँ। तुम्हारे इस अत्यन्त मधुर मनोहर ऋण को कभी चुका ही न सकूँ और अपने सम्पूर्ण योगैश्वर्य को भूलकर सदा तुम्हारे प्रेमरज्जु से बँधा हुआ तुम लोगों के साथ खेलता रहूँ। इस प्रकार मैं नित्य नये रास की रचना करके तुम्हारे रस से परम सुखी बना हुआ सदा तुम्हारे सुख को सरस बनाता रहूँ।’ |
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