श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘मधुर स्वर सुना दो!’जिस शुभ क्षण में व्रजमण्डल में तुम्हारी वंशी बजी, उस क्षण व्रज के प्रेमी जीवों की क्या दशा हुई थी- इस बात का मधुरातिमधुर अनुभव उन्हीं सौभाग्यशाली भक्तों को होता है। हम लोग तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। पर सुनते हैं कि तुम्हारी उस वंशीध्वनि ने जड़ को चेतन और चेतन को जड बना दिया था, सारे कामियों को विशुद्ध प्रेमी बना दिया था। तुम्हारे मुरली-निनाद को सुनकर सांसारिक भोगों की सबकी सारी कामनाएँ क्षणभर में नष्ट हो गयी थीं और संसार के प्रिय-से-प्रिय पदार्थों को तृणवत त्यागकर सबका चित्त केवल एक तुम्हारी ओर ही लग गया था। यही तो सच्चा प्रेम है। जब तुम्हारे लिये-तुम्हारे प्रेम के लिये अपने सारे सुख, सारे भोग, सारे आनन्द- यहाँ तक कि मुक्ति तक का त्याग करने की तैयारी होती है, तभी तो तुम्हारा प्रेम प्रस्फुटित होता है। फिर संसार में रहने या उसके त्याग करने से कोई मतलब नहीं रह जाता। फिर तो तुम जहाँ जिस तरह रखना और जो कुछ भी करवाना चाहते हो, उसी में परम सुख मिलता है; क्योंकि फिर जीवन का ध्येय केवल तुम्हारी रुचि और इच्छा का अनुसरण करना मात्र रह जाता है। यही तो दशा प्रेम की है। भोग में रहकर भोगों को अपना भोग्य न समझना, संसार में रहकर संसार को भूल जाना, जगत में रहकर अपने-आप को सारे जगत सहित तुम्हारे चरणों में अर्पण कर देना, केवल तुम्हारा होकर तुम्हारे लिये ही जीवन धारणा करना और सँपेरे की पूँगी-ध्वनि पर नाचने वाले साँप् के समान निरन्तर प्रमत्त होकर वंशी-ध्वनि के पीछे-पीछे अप्रमत्त रूप से नाचना जिसके जीवन का स्वभाव बन जाता है, वही तो तुम्हारा प्रेमी है। कहते हैं, फिर उसको तुम्हारी वंशी ध्वनि नित्य सुनायी देती है, क्षण-क्षण में तुम्हारा मन-मोहन मुरलीस्वर उसे पथ-प्रदर्शक की मशाल के समान मार्ग दिखलाया करता है। वे प्रेमी महात्मा धन्य हैं, जो तुम्हारे इस प्रकार के प्रेम को प्राप्तकर त्रैलोक्यपावन पदवी पर पहुँच चुके हैं। हम तो नाथ! इस प्रेम-पाठ के अधिकारी नहीं हैं। सुना है कि परम वैराग्यवान् पुरुष ही इस प्रेम-पाठशाला में प्रवेश कर सकते हैं। नहीं तो, यह प्रेम का पारा फूट निकलता है और सारे शरीर-मन को क्षत-विक्षत कर डालता है। प्रेम का पारा वैराग्य से ही शुद्ध होता है। वैराग्य के अभाव में तो नीच काम प्रेम के सिंहासन पर बैठकर सारी साधनाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अतएव प्रभो! भोगों में फँसे हुए हम संसारी जीव इस दिव्य-प्रेम-लीला की बात करने का दुस्साहस कैसे कर सकते हैं। हम तो दीन-हीन, पतित पामर प्राणी हैं। तुम्हारे पतित-पावन स्वरूप पर भरोसा किये दरवाजे पर पड़े हैं, परंतु नाथ! हममें न श्रद्धा है, न भक्ति है और न प्रेम है। फिर किस मुँह से तुमसे कहें कि प्रभो! तुम हमारी रक्षा करो। |
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